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ख़्वाब / शीला तिवारी
Kavita Kosh से
निःशब्द आँखें
ख़्वाब बुनते बहुतेरे
कल्पना के पंख लगा
हौले-हौले लेते हिलोरे
मन नभ वारिद को देखो
अल्हड़ बन छा जाता
उच्चश्रृंखलता की विविध कला से
मन तारों को छेड़ जाता
ख़्वाबों के बुदबुद पर देखो
सजल सरोवर कमल खिले
लघु तरंग पैदा कर
जीवन में नई गति भरे
ख़्वाबों के उपवन को देखो
चित्रपटी पर रंग भर देते
ख्वाहिशों की रोली सजा
सुमन उपवन में बहुरंग इतराते
ख़्वाबों के श्रृंगों को देखो
पर्वत मालाओं से भी ऊँची
हिम शिखर सी तेजस आभा
दृढ़ हौसला भर देती
ख़्वाब सुन्दर ऊँचे उठते जाते
कर्म पथ में कमल खिल जाते
कठिन डगर सरल हो जाती
पथ पर कुसम रज-कण बिछ जाते।