भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़्वाब आते रहे ख़्वाब जाते रहे / कविता किरण
Kavita Kosh से
ख़्वाब आते रहे ख़्वाब जाते रहे
नींद ही में अधर मुस्कुराते रहे
सुरमई साँझ इकरार की थी मगर
रस्म इनकार की हम निभाते रहे
चांदनी रात में कांपती लहरों को
कंकरों से निशाना बनाते रहे
बोझ शर्मो-हया का ही हम रात-भर
रेशमी नम पलक पर उठाते रहे
उनके बेबाक इजहारे-उल्फत पे बस
दांत में उँगलियाँ ही दबाते रहे
वक़्त की बर्फ यूँ ही पिघलती रही
वो मनाते रहे हम लजाते रहे
ऐ "किरण" रात ढलती रही हम फ़क़त
रेत पर नाम लिखते मिटाते रहे