भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़्वाब देखने का भी सिलसिला ज़रूरी है / सुजीत कुमार 'पप्पू'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़्वाब देखने का भी सिलसिला ज़रूरी है,
ख़्वाहिशें बिना तो हर ज़िंदगी अधूरी है।

नामुराद आंखें सपने देखा नहीं करती,
क्या पता उसे केसर और क्या कस्तूरी है।

ख़्वाब रात को आता है मधुर-मधुर अक्सर,
दिन में आने वाला भी ख़्वाब तो कपूरी है।

करवटें बदलने से वह नहीं बदलता है,
ख़्वाब से हक़ीक़त की तो बहुत ही दूरी है।
 
लाज़मी नहीं के हर ख़्वाब ही हमारा हो,
लोग और भी तो हैं जिनकी आंखें नूरी है।