ख़्वाहिश / प्रेमरंजन अनिमेष
तुम्हारे साथ भीगने की
तुम्हारी रात जागने की
ख़्वाहिश ही रह गई...
तेरी ज़ुल्फों से खेलने की
तेरे होंठों से बोलने की
तेरी धड़कन सहेजने की
तेरी रग-रग में गूँजने की
सुखों की छाँव बैठने की
दुखों की धूप सेंकने की
ख़्वाहिश ही रह गई...
तेरे तिनके बटोरने की
तेरे क़तरों को जोड़ने की
तेरे काँटे निकालने की
तेरा आँचल सँभालने की
ज़रा-सी ओस चाटने की
जनम की प्यास पाटने की
ख़्वाहिश ही रह गई...
तेरी आँखों से देखने की
तेरी पलकों को पोंछने की
तेरी लहरों में डूबने की
तेरे शिखरों को चूमने की
तुम्हारी बात बूझने की
तुम्हारे साथ सींझने की
ख़्वाहिश ही रह गई...
तेरे सपने सँवारने की
तेरे सच को पुकारने की
तेरी मिट्टी को सींचने की
तुझ तक आकाश खींचने की
तुम्हारी बाट देखने की
तुम्हारे घाट लौटने की
ख़्वाहिश ही रह गई...
तेरी ख़ुशबू में महमहाता
तेरी साँसों से लहलहाता
तेरे साँचे पिघल के ढलता
तेरे रंगों में घुल के मिलता
समय की धूल फाँकने की
तेरे सँग खाक छानने की
ख़्वाहिश ही रह गई...