भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खाली नै छी / अनिल शंकर झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम्में खींझलोॅ जाय छी
आरो हमरोॅ खीझ बढ़ाबै लेली
ऐलोॅ जाय छै कोय नैं कोय।

धूप सेंकतें-सेंकतें झपकॅे लागलोॅ रहै आँख,
कि खट-खटाय गेलै केबाड़
शिव-पूजा के चंदा उगाहै बाला
आरो तोड़ी गेलै हमरोॅ नींद।

बड़ी मुश्किल सें...
होलोॅ रहै तोॅन-मोॅन ढ़ीला
कि बजाय गेलै कॉल-बेल
टुथ-पेस्ट/साबुन/नेपकिन हाथोॅ में लेनें
एक कम उम्र महिला।

ईजी चेयर पर
ईजी ने हुवेॅ पारलोॅ रहाँ,
कि आबी गेली मेहतरी,
एडमांस के अर्जी लेनें।
हमरो खीझ-
क्रोध में बदलेॅ लागलै
छोॅ दिनोॅ सें
करी रहलोॅ रहाँ इन्तजार सन-डे के,
दिन भर खाय के, आरो सूतै के।

लेकिन...
आबी गेलै सलीम,
सलाम बजाबै लेॅ।
”आय सन-डे छेकै, साहब घरे में होतै,
आफिस में ड्राइवर के पद खाली छै“।
सहमी गेलै, हमरोॅ दहाड़ सुनी केॅ,
”लेकिन, हम्में खाली नै छी
आय सन-डे छेकै।“