भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खिड़कियाँ / अनीता कपूर
Kavita Kosh से
लफ़्ज़ों के झाड़ उगे रहते थे
जब तुम थे मेरे साथ
हम दोनों थे हमारे पास
रिश्ते की ओढ़नी थी
लफ़्ज़ों के रंगीले सितारे
टँके ही रहते थे
नशीले आसमाँ पर.....
फिर तुम चले गए
कई बरसों बाद
अचानक एक मुलाक़ात
हम ओढ़नी के फटे हुए
टुकड़ों की तरह मिले
मेरा टुकड़ा
तुम्हारे सड़े टुकड़े के साथ
पूरी न कर पाया वो अधूरी नज़्म
सिसकते टुकड़ों पर फेर लकीर
साँस लेने के लिए
खोल दी है मैंने
सभी खिड़कियाँ