भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिड़कियाँ / कुमुद बंसल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

7
बंद खिंड़कियों के खुलते ही
जीवन के अर्थ बदल गए ।
खिड़कियाँ कब खुलीं मैं नहीं जानती ।
और कितनी खिड़कियाँ खुलनी शेष हैं,
यह भी नहीं जानती ।
इसके विपरीत यदा_कदा यह अहसास होता है
कि जैसे मैं कमरे में नहीं,
खुली वायु में, निर्विष्न ब्रहमांड में रहती हूँ :
शारीरिक आवरण, देह की सीमाएँ छिन्‍न-भिन्‍न हो गई
-0-