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खिड़कियाँ नहीं खोलीं / नंद चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
पूरे दिसम्बर
मैंने खिड़कियाँ नहीं खोली
गिर गये होंगे सारे पत्ते
फूल बहुत छोटे और प्रसन्न
या न भी गिरे हों
यह देखने के लिए भी नहीं
वे स्त्रियाँ कहाँ जा रही थीं
बची हुई रोशनी में
उस पूरे दृश्य के पार
छोड़ती हुई अपनी आयु के सपने
सूखते हुए जंगल के बीच
दिसम्बर के मोहक
नीले आकाश और बादलों के लिए
बच्चों के लिए
जिन्हें देखने की मैंने इच्छा की थी
नीले सफेद और कई रंग के
मुलायम ऊनी स्वेटरों में
उन तक के लिए भी
मैंने खिड़कियाँ नहीं खोलीं।