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खुद को जगा / रामकिशोर दाहिया
Kavita Kosh से
आदमी
जब आदमी को
खा रहा
जिन्दा जला के
और उस
संवेदना को
जी रहा क्यों
गीत गा के
हाथ जिनके
मारते
उनको पकड़ के
रोक पहले
बाद में
एहसास करना
छटपटाहट
और सह ले
प्राण रक्षा के लिए
दो-चार
देना है मिला के
बेबसी
तेरे लिए भर
दूसरे हैं
क्या हुआ है?
वे परिंदे
हैं अगर तो
कौन तू
बंधक सुआ है!
उड़ गगन में
मुक्त मन से
पंख हैं
बैठा भुला के
देख ताकत
सामने की
भागती मजबूरियाँ हैं
ठान ठाने
रह गया तो
दर्द से भी दूरियाँ हैं
है अगर!
जीना खुशी से
रख जरा
खुद को जगाके
-रामकिशोर दाहिया