खुदबुदिया / कुमार वीरेन्द्र
एक दिन माई से
कहा, ‘तुम तो खुदबुदिया लग रही हो’
और बताया कि खुदबुदिया, ऊ चिरईं को कहते हैं, जिससे सब सुन्दर लागे
जिसे ख़ुश देखना चाहते हों, मुस्कुराने लगी, एक दिन चाची, फुआ-दीदी से
कहा, और बताया तो वे भी मुस्कुराने लगीं, जब बगीचे में
होता, और आम न टपकता, किसी पेड़ से
कहता, बताता, और गँवे
बैठ जाता
अब नहीं तो अब टपकेगा आम
जब उस पेड़ से
न टपकता, किसी और पेड़ से कहता, इतने
में, किसी न किसी पेड़ से टपक ही जाता, जब नदी किनारे ‘भुड़ाड़’ का पानी पीने जाता
का तो सूझता, तनि देर किनारे बैठ जाता, और नदी को 'खुदबुदिया' कह, निहारता रहता
एक दिन बाबा से कहा, जब वह मेंड़ पर बैठा, खेत में हल चलाने लगे
ठठाकर हँस पड़े, पूछा, ‘अरे किसने सिखाया तोहे
आजी ने ?’, सिर हिलाया तो
और हँसने लगे
जो मुझे जब-तब जीभ बिराती
एक दिन उस लड़की से
कहा, बताया तो आपन आधा गट्टा, खाने को मुझे
दे दिया, किसी दिन जब वह कहती, आधा गट्टा मैं उसे दे देता, एक दिन भइया सँग होरहा खा
लौट रहा था अकेले, देखा, जिनके घर से ख़ूब दुश्मनी, खेत में गवत खातिर, तेलहन उखाड़ने
से पहिले खैनी बना रहे, दूर ही से घूर रहे, डरा तो नहीं, पर क्यों तो उस दिन
उनसे भी कह डाला, ‘काका, आज तो खुदबुदिया लग रहे हो’
फिर बताया तो मुस्कुराने लगे, गाल
थपथपाने लगे
यूँ तो आजी से कबहुँ-कबहुँ ही कहता
लेकिन जब कहता
वह भी मुस्कुराने लगती, जितना मुस्कुराती, मैं
और कहता, फिर तो हँसने लगती, हँसते-हँसते उसकी आँखों में लोर भर आता, तब नहीं
जानता था, लोर में भी कवनो अन्तर होता है, इसलिए देखते, झट, हाथों से पोंछने लगता
अँकवारी में भर गले लग जाता, उसकी ही बातें याद दिलाते, 'अरे हो
गया, हो गया, ज़ादा खेत नाहीं पटाते, नाहीं तो सब
फसलवे दह जाएगी, दह जाएगी
तो बोलो, हँ बोलो
हम साल-भर जिएँगे कइसे...!'