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खुला आकाश / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे
Kavita Kosh से
अपनी तो बात नहीं
पानी का परदा,
अपनी तो बात है
खुला आकाश !
कहने का उत्साह हो
सुनने का अवकाश,
पल-पल का हो यूँ
साजन, अपना मिलाप !
अपनी तो बात जैसी
माटी की सोन्धी सुगन्ध,
और सुगन्ध भरी साँस
शब्दों के मोरपँख
हैं कैसे कोमल !
अपनी तो बात में
खिलते हैं मेघधनुष
और चमके है बिजली
है ये कैसा उजास
कि अन्धकार से जा मिले
अचानक अन्त्यानुप्रास !
मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे