भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुली किताबों में/जय कृष्ण राय तुषार
Kavita Kosh से
बीत रहे हैं
दिन सतरंगी
केवल ख़्वाबों में |
चलो मुश्किलों
का हल ढूँढें
खुली किताबों में |
इन्हीं किताबों में
जन- गण -मन
तुलसी की चौपाई ,
इनमें ग़ालिब -
मीर ,निराला
रहते हैं परसाई ,
इनके भीतर
जो खुशबू वो
नहीं गुलाबों में |
इसमें कई
विधा के गेंदें -
गुड़हल खिलते हैं ,
बंजर मन
को इच्छाओं के
मौसम मिलते हैं |
लैम्पपोस्ट में
पढ़िए या फिर
दफ़्तर, ढाबों में |
तनहाई से
हमें किताबें
दूर भगाती हैं ,
ज्ञान अगर
खुद सो जाए
तो उसे जगाती हैं ,
इनमें जो
परवाज़ ,कहाँ
होती सुर्खाबों में ?
इनको पढ़कर
कई घराने
गीत सुनाते हैं ,
इनकी जिल्दों में
जीवन के रंग
समाते हैं ,
ये न्याय सदन ,
संसद के सारे
प्रश्न -जबाबों में |