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खुले मे क़ैद / प्रमोद कौंसवाल

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सामने क्या हैं कांपते हाथ रखे भविष्य
की हथेलियों पर।मुठ्टी खुली नहीं परामर्शदाताओं
और रास्ता दिखाने वालों की भीड़ है। वह वैज्ञानिक
कहता था उसे अमेरिका मे पढ़ाया जाता है
कॉलेजों और दीमाग़दारों के सेमीनार में
उसकी क़िस्मत की मुठ्ठी विकल्पों को खोजती
रही और वह भारतभर से घूमती हुई खुली कितनी दूर जाकर।
वह कुछ इस तरह कहता है कि हमारे यहां क़िस्मत
मुक्ति के नाद की तरह बजती है
पर यह मुक्ति तो असल में होती ही नहीं है। वह क़ैद होती है
सड़कों बाज़ारों और स्टेशनो के खुले में।
सलाखों में नहीं होती। बिना सलाखों की क़ैद
को भारत में मुक्ति कहते हैं। कहते हैं
दूसरे शब्दों में आज़ादी। ऐसी इकहरी मुक्ति के
उदाहरणों को खोजते हम देख सकते हैं जिन्हें ऐशो आराम
चाहिए वे तो वास्तविक सलाखों में क़ैद हैं
या वहां जाने की उनकी प्रतिभा दम भर रही है
जिन्हें आज क़ैद कहने का रिवाज़ नहीं रहा कि
तुम्हारा कोई नाम नोट कर रहा है टेप हो रहा है फोन
संविधान की किसी धारा में तम्हे फंसाने का चक्रव्यूह
रचा जा रहा है या कोई शब्द ऐसा लिखा जा रहा है जो जाने
किस शहर की किस फ़ाइल मे क़ैद हो चुका।
खुली क़ैद और बंद मुक्ति को पहले तो हमने इतिहास की तरह देखा
फिर खोजा वर्तमान में वह बस अड्डों जैसी जगहों से लेकर
गांवों की पंचायतों और चौबारों में दिखने लगी। जेलख़ाने
पटवाख़ाने सब नाचीज़ होकर रह गए। वे क़ैद के लिए बने थे
लेकिन दिखे मुक्ति के रास्ते पर।