खुशबुओं का सफ़र / रेणु मिश्रा
खुशबुएँ, जो रचती हैं
स्मृतियों का अपरिमित संसार
अपने महसूस होने के बहाने से
करा जाती हैं
उन कालखंडों का आभास
जिन के बीच से गुज़रते हैं
जीवन के वो पहलु
जो अब अपने दरमियाँ नहीं है
वो हिलोरती हैं बचपन का वो लम्हा
जो अब भी बंद है
स्कूल के ख्वाबी दिनों में
जब अपने घर को लौटते थे
बस्तों में छुपा कर
गुलमोहर की खुशबु
जिन्हें किताबों में तब छुपाया था
जब दोपहर की धूप में वो
बदलते वक़्त की गिरा जाती थी टुनगी
फिर वो खुशबू तब्दील हो जाती
जवां हाथों की हिना में
बांधे हुए काकुलों के गुलों में
फिर बिखर के मिल जाती है
खिलती-बिखरती हुई साँसों में डूबी
मोहब्बत की खुशबु में
जाने कितने अजनबी लम्हों को
अपने अहसासों में जज़्ब करते हुए
उम्र की बियाबानों गुज़रते हुए
जब महुओं से टपकती थी
ढलती उम्र के एहसासों के रेशे
इल्म हो जाता था
ज़िन्दगी अब मौत से ज़्यादा दूर नहीं
मैं बदल जाती हूँ रूह की एक खुशबु में
बिलकुल खुशबु की ही तरह आज़ाद
रचूंगी फिर से खुद को
नयी खुशबुओं की सोंधी मिट्टी से