भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खून / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी को भुला ले
तुम्हारी भंगिमा
किसी की ममता जगा ले
तुम्हारे यह आयोजन
(उसी को मोहने का तो)
फिर भी तुम्हारे चेहरे पर
वह लुनाई नहीं आएगी
जो उस के चेहरे पर है जो
तुम्हारे लिए ये खीरे के टुकड़े
तश्तरी में लायी है
जो तुम्हारी आँखों की मद-भी हिर्स को
अपनी कुतूहल-भरी आँखों से देखती है।
उस के बाद का ख़ून तुम्हारे बाप ने चूसा है
उस के बाप के बाप का
तुम्हारे बाप के बाप ने,
और यों सदियों से होता चला आया है।
हो सकता है तुम्हारे बाप ने
अभी तुम्हें यह नहीं बताया है
और निश्चय ही रूप-रक्षा के नुस्ख़ों वाली तुम्हारी
रंगीली पत्रिका ने यह तुम्हें नहीं पढ़ाया है
बात यह है कि वह खून देती हुई भी
अपने ख़ून पर पली है
और तुम अनजानते भी
उस के ख़ून पर...