भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खूब था सख़्त सफ़र क्या करते / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
खूब था सख़्त सफ़र क्या करते।
हम नजारों पर नज़र क्या करते॥
उनकी मर्ज़ी से न चल पाते तो
टूटता उनका क़हर क्या करते॥
रोज़ मर-मर के जिये जाना है
मुफ़लिसी में वह बसर क्या करते॥
इस क़दर दर्द मिला अपनों से
दिल पर हो जाये असर क्या करते॥
राहबर ने ही रहजनी की तो
बेवफ़ाई की फ़िकर क्या करते॥
जिस गली में न पता हमदम का
ऐसे कूचे से गुज़र क्या करते॥
था न महबूब जिधर आ पाया
हम ठहर के भी उधर क्या करते॥