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खेजड़ी-सी उगी हो / नंदकिशोर आचार्य

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खेजड़ी-सी उगी हो मुझ में
-हरियल खेजड़ी-सी तुम
सूने, रेतीले विस्तार में
तुम्हीं में से फूट आया हूँ
ताज़ी, घनी पत्तियों-सा।

कभी पतझड़ की हवाएँ
झरा देंगी मुझे
जला देंगी कभी ये सूखे की आहें !
तब भी तुम रहोगी
मुझे भजती हुई अपने में
सींचता रहूँगा मैं तुम्हें
अपने गहनतम जल से।

जब तलक तुम हो
मेरे खिलते रहने की
सभी सम्भावनाएँ हैं।

(1987)