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खेलत घरघुन्दिया / रमेशकुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
खेलत घरघुन्दिया, गली खोर मोर नोनी।
धुर्रा धुर्रा ले बनाय, घर चारो ओर नोनी।।
बना रंधनही खोली, आनी बानी तै सजाय।
रांधे गढ़े के समान, जम्मा जोर जोर नोनी।।
माटी के दिया ह बने, तोर सगली भतली।
खेल खेल म चुरय, साग भात तोर नोनी।।
सेकत चुपरत हे, लइका कस पुतरी।
सजावत सवारत, चेंदरा के कोर नोनी।।
अक्ती के संझा बेरा, अंगना गाढ़े मड़वा।
नेवता के चना दार, बांटे थोर थोर नोनी।।
पुतरा पुतरी के हे, आजे तो दाई बिहाव।
दे हव ना टिकावन, कहे घोर घोर नोनी।।
कका ददा बबा घला, आवा ना तीर मा।
दू बीजा चाऊर टिक, कहय गा तोर नोनी।।
माईलोगीन के बूता, ममता अऊ दुलार।
नारीत्व के ये स्कूल मा, रोज पढ़े मोर नोनी