भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खो गया कहीं / अंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खो गया कहीं
वक्त दो पलों का भी, है बचा नह़ीं

कब हुई सुबह गया, दिन भी कैसे बीत कब?
कैद अपनी दौड़ में, सबको भागना है अब
रात-दिन वही
मौसमों के रंग अब दिख रहे नह़ीं

बंद इस हवा में रहता रोज़ इंतज़ार है
बहने को मचल रहा सिमटा-सिमटा प्यार है
बूँद-बूँद ही
बहना ज़िन्दगी है अब
चल रही घड़ी

रोटियों की दौड़ क्यों, अंतहीन हो गई
बदले में तमाम ही, उम्र खींच ले गई
फुरसतें नहीं
कतरनों में कह रहे, कहानियाँ सभी