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खो जाना चाहती हूँ अब! / शुभा द्विवेदी
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बहुत मिल ली सभी से
बहुत हंस लिया सभी के साथ
न अब हंसना चाहती हूँ
न ही मिलना चाहती हूँ
बन जाना चाहती हूँ एक लहर
जो मिल जाये अनगिनित लहरों के साथ
समां जाना चाहती हूँ सागर में अब।
या बन जाऊँ धूल का कण
या बन जाऊँ में भी किसी गुबार का हिस्सा
उड़ जाऊँ या हो लूँ साथ असंख्य कणों के
कोई चिन्हित करना चाहे तो भी न कर सके
ऐसे मिश्रित हो जाना चाहती हूँ धूल में अब।
कभी कभी सोचती हूँ
कि क्योँ न बन जाऊँ मिट्टी
पोषित हो जिसमें कोई तो जीवन
मैं न सही, मुझमें पोषित जीवन ही
महका दे पूरी बगिया को अपनी सोंधी-सी सुगंध से
और मुझमें अवशोषित सुगंध हर राहगीर को दे शीतलता।