भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोजना अपने होने को / राजेन्द्र जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब मिलेगी आजादी
थिरकन है तुम्हारें पांवों में
और ऊर्जा देह में
शिथिल नहीं हो
सम्भलकर चलती हो
कहीं सच यह तो नहीं
कि तुम आजादी चाहती ही नहीं
जकड़ी जा चुकी हो
मेरी बेड़ियों में
मुझे पता है
तुम बंधन को
अपनेपन में बदल चुकी हो
इसमें भी शायद
खोज लेती हो
अपने होने को