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खोजो-खोजो / विजय गौड़
Kavita Kosh से
लाल-धधकती भट्टी में
पिघलती हुई धातु है
खाँचे में आती है
एक-एक कर बनते हैं यन्त्र
सीधा-सा सूत्र है
न कोई तन्त्र,
मन्त्र !
बड़ी-बड़ी लौह मशीन के
खो जाएँगें छोटे-छोटे पुर्जे
मल्टीनेशनल, मल्टीनेशनल
वैश्वीकृत बाज़ार का
होगा नहीं कोई ज़िम्मेदार
होशियार-होशियार
खेतों पर पड़ने वाली है मार
भूमि पर हो किसका अधिकार
उठा सवाल बार-बार
अबकी बार
और एक बार
इसी तरह धीरे-धीरे होगा साफ़ आकाश
अभी तो सूखे हुए ताल में
पोखर में, थाल में
सूर्य की ऊष्मा
गोल-गोल घेरा है
छँटता सवेरा है;
दूर ओट में लुक-छिप
खोजो, खोजो, खोजो।