खोरना / भाग 5 / भुवनेश्वर सिंह भुवन
आग लगै छै जकरा घर में,
भागै जान बचाय।
ठीक वही ना भागै मंत्री,
खाली कुर्सी पछताय॥
जन-आक्रोश प्रचंड ज्वार बनी,
अक्षम राज डूबाय।
बन्दर-मोह में फंसलोॅ नेता,
नाव संगें बही जाय॥
जे फेकै लटकन आभूषण,
गहै प्रेम-पतबार।
जन-संघर्षी जहाज के नाविक,
कुपित जलधि होय पार॥
जकरोॅ शंका रहै देश केॅ,
वोकरा कैलकै पक्का।
अध्यक्षी गद्दी सें हरिजन केॅ,
देलकै बाबू धक्का॥
चोट खाय केॅ जागलै आत्मा,
गर्जन वनल अट्टहास।
बजै नगारा पाटी नेता,
प्राप्त करै विश्वास॥
लोकतंत्र-प्रनेता डुबलै,
बिना लाज बिन पानी।
करनी के फल सभै पाबै,
कहै भुवन अज्ञानी॥
दारु ढारै मातै बोतू,
भैसां चाभै अंगूर।
आभूषण दांतोॅ सें चाखै,
किटकिटाय लंगूर॥
भालू के बाराती गदहा,
हाथी पटकै सूंड़।
नाचै खेढ़िया बीच सड़क पर,
ऊंट बजाबै खूर॥
कोयल के प्रेमी उदास,
बान्हलोॅ बसंत मजबूर।
जंगल राज में हंसा बन्दी,
उल्लू खाय खजूर॥
कहौं लोग काम बिन बौनोॅ,
दवा बिना बीमार।
कहौं वस्त्र बिन लाज उघारोॅ,
गाछी तर परिवार॥
कहौं अन्न बिन जिनगी बेरथ,
अन्तर हाहाकार।
कहौं जवानी दर-दर भटकै,
जिनगी केॅ धिक्कार॥
ऐलॉे धोॅन खर्चेॅ नै पारै,
लकबा मार सरकार।
घ्र झगड़ा में गोहरोॅ लागलै,
देख तमाशा यार॥
ठेहुना भर घुरकै छोॅ,
सम्हरी केॅ खेलोॅ।
एक हाथें कोयलोॅ छौन,
दोसरा में ढेलोॅ॥
कोयला के कालिख,
नै लीहोॅ लगाय।
सुगना पर ढैलोॅ,
नै फेकिहोॅ उमताय॥
बायां दिश आगिन,
दहिना छौन पानी।
कन्हौं जों झुकल्हेॅ तेॅ,
याद ऐथौंन नानी॥
खूनी डाकू अपहर्ता केॅ,
सजा करै छै न्यायालय।
सड़क-लुटेरा कर-वंचक केॅ,
सजा करै छै न्यायालय॥
जालसाज-धोखाबाजोॅ केॅ,
सजा करै छै न्यायालय।
बूथ-लुटेरा देश-द्रोही केॅ,
सजा करै छै न्यायालय॥
बाबू के इंसाफ कहै छै,
जेकरोॅ लाठी ओकरोॅ भैंस।
निमला के घोॅर बरियोॅ सुततै,
नेता करतै सात्विक ऐश॥
जहां-जहां उटतै विरोध-स्वर,
वोकरोॅ जैतै जान।
न्याय विभाग आदमी लेॅ छै,
तोंय असली भगवान॥
केकरोॅ दम इंसाफ करै के,
देभो सबकेॅ गारी।
तोरोॅ रस्ता दैब जों रोकेॅ,
लेभो दांत उखारी॥
तोहरोॅ कुमुक मेघ के ठनका,
उड़बै सबके होश।
न्याय के बन्धन कमजोरोॅ लेॅ,
समरथ केॅ नै दोष॥
कमरा बन्द करी केॅ कांपै,
जस पीपर के पत्ता।
बाहर जिगरी मीत खड़ा,
हाथोॅ में शोभै कत्ता॥
कौनें मारतै के बचबैया,
फकै नै जानै कोय।
मित्र-शत्रु केॅ जें सम समझै,
मूरख जीवन भर रोय॥
स्वार्थ-सिद्धि लेॅ यार बनाबै,
धोखेबाज जुआरी।
वोकरोॅ प्राण सदा संकट में,
त्राहिमाम त्रिपुरारी॥
मरूवैलोॅ छै गाछ खाद बिन,
पत्ता खैलकै कीड़ा।
बंजर बगिया के माली सें,
कोय नै पूछै पीड़ा॥
गमला के गुलाब पर भौरा;
दिन भर चक्कर काटै।
कोयल हकरै बसबिट्टा,
बुलबुल के छाती फाटै॥
मोर-पपीहा के आसन पर,
कौवा-गिद्ध बिराजै।
टिकली टांकै नाक-नोक पर,
गाल पेॅ कागज साजै॥
शेखी बघारै छोॅ,
हाथ शोभौन कोड़ा।
हमरोॅ दुख देखै के,
फुरसत नै तोरा॥
तोरा तेॅ बरसै छौन;
तोड़ा पेॅ तोड़ा।
हमरा पढ़ाबोॅ,
संतोखोॅ के खोढ़ा॥
घिरना सें सौंसे जग,
देखौं नौटंकी।
रात-दिन बटोरोॅ धोॅन,
कलजुगी कलंकी॥
जतना जोर सें राजां रोकै,
महँगी बोतन्है जोर सें भागै।
जस बन्हटुटुवोॅ बाढ़ के पानी,
सबटा सीमा लांघै॥
सबटा सीमा लांघै साधो,
ककरो दुख नै जानै।
लोभी केॅ कत्तो समझाबोॅ,
पापी एक्को सीख नै मानै॥
जै रफ्तार सें महँगी दौड़ै,
रॉकट लागै फिक्का।
झोला में जतना अन्न खरिदभेॅ,
वोतने भरिहोॅ सिक्का॥
तंत्र भ्रष्ट होला सें ओझा,
मन-मतंग उमताबै।
भ्रष्ट अचार मशाला बनि केॅ,
जीवन-स्वाद बढ़ाबै॥
जीवन-स्वाद बढ़ाबै मीता,
जो हर खन पनियाबै।
नै मिललै अवसर लूटै के,
सिर धूनै पछताबै॥
दोसरा के बढ़ती पर डाही,
द्वेषी मू बिचकाबै।
भ्रष्ट जलधि में डुबलोॅ नेता,
अगजग स्वर्ग सजाबै॥
नाची-नाची गाबै लोड़कैनोॅ,
हिंसा केॅ भड़काबै।
वें शरीर के एक हाथ केॅ,
दोसरा सें लड़बाबै॥
दिशाहीन बौवाबै पागल,
सुरा-दम्भ पियै छै।
जीवन बेरथ धरती के,
संहारक व्यर्थ जियै छै॥
ज जिनगी के गुदरी चादर,
प्रेम-सूत सीयै छै।
नीलकंठ जें दुनियां लेॅ,
अपमान-गरल पीयै छै॥
कोय पिन्है फूलोॅ के माला,
कोय सोना के हार।
कोय पिन्है रूद्राक्ष एक सोॅ।
तुलसी के गलहार॥
चकमक-चकमक चानी चमकै,
प्रेमी-मन ललचाय।
हीरा के कन-कन लेॅ प्रेयसी,
जनम-जनम तरसाय॥
मानव खून पिपासू केॅ,
सपना में झलकै काल।
रक्त-तिलक राजै ललाट,
छाती पर टटका मुंडमाल॥
हाथोॅ क औंगरी काटी केॅ,
बनवै अभिनव माल।
आपना गल्ला में पीन्ही केॅ,
बिचरै अंगुलिमाल॥
बिचरै अंगुलिमाल,
आजकल पटना में डेरा छै।
हाथ के आँगरी कम पड़लै तेॅ,
गोरोॅ पर फेरा छै॥
गोरोॅ के नाखून के सित्तू,
नाम पै साटे जोकर।
आंख मुनी केॅ भागै सरपट,
लागै पग-पग ठोकर॥
तोरा लुटलक गोरोॅ गाल।
करका काजल घुघर बाल।
आरु सब कॅे मँहगी लूटै,
बिकलोॅ जाय छै खाल॥
बिकलोॅ जाय छै खाल,
गाल पर नगर निगम के गड़हा।
बाल सफाचट चानी लागै,
बिना कान के खड़हा॥
काजल रग कारोॅ सगर देह,
जस बिन पानी के बादल।
तोरोॅ मोॅन मतंग बिकले हमरोॅ।
ढोल मजीरा मादल॥
जै बिजली बिन करघा-कल पुर्जा
के धड़कन रुकलै।
जै बिजली बिन सूनोॅ उपवन,
हरिहर धनमा सुखले॥
जै बिजली बिन कैद जवानी
के उल्लास-उमेद।
जै बिजली बिन उमस अनारी,
कन-कन बूने स्वेद॥
जे बिजली दुर्लभ जन-जन केॅ,
वोकरोॅ मोल बढ़ैल्हो।
जे बिजली ठगनी बिहार सें,
वोकरोॅ ब्याह रचैल्हो॥
तापतोॅ लागै जरलोॅ धरती,
आगिन छै पौदान।
बस-टेक्सो-मेक्सी के भाड़ा,
छूवै छै असमान॥