भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगई मिटटी सी / रामनरेश पाठक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गंगई मिटटी-सी
सुबह उतर रही है
रिक्शे में दुबक कर सोया अस्थि-पंजर
हिलने-डुलने लगा है
गृहस्थिन बर्तन माँज रही है
चूड़ियों की खनखनाहट से
सास, ननद और पति
जागने को सोच रहा है
गौरैया का जोड़ा
घिंड़ सर के पास
रति केलि में लीन है,
कराहती मजूरनी
मजूर को बासी भात, नून, मिर्च खिलाकर
मशीनों से जुतने की प्रेरणा दे रही है

पाउडर, लिपस्टिक, रूज
चेहरे पर उतर गया है
सोसाइटी कॉल गर्ल्स और वेश्याएं
ऐंठ-ऐंठ कर रात की थकान से
उबरने की कोशिश में लगी है
कालेज के बोर्डिंग हाउस में
पाखाने में नाक दाबे होनहार मंत्री
वकील, प्रोफ़ेसर, देश के भावी कर्णधार
बैठकर कूँथ रहे हैं, और
किऊ में खड़ी भीड़
निकलो भाई की आवाज दे रही है
गंगई मिटटी-सी सुबह उतर रही है

काँधे पर जुआठ और हल फाल और
टांड़ी लिए बनिहार पैनो से
बैलों की पीठ पर घाव बनाते
चले जा रहे हैं,
कलों पर बाल्टी, घड़े और बसनियाँ
जमा हो रही हैं,
गंगई मिटटी-सी सुबह उतर रही है

पुन्य अरजने को नारी नर
गंगा में पाप धोने जा रहे हैं,
लूलों, लंगड़ों, अपंगों की आवाज में
भींगी करुणा प्रत्येक मिनट पर
प्रत्यक्ष हो रही है,
कठोर पीन स्तनों सटे वस्त्र,
शरीर से लिपटी भींगी साड़ी
शरीर ही बन गयी है, और
कुछ हवा खोरी के लिए आये
बाबुओं की नजर
किसी नाज आफरीं से लड़ जाने को
उठ उठकर बैठ रही है,
बसें, ट्राम, सुरैया, लता और कुमारों की
आवाज से भरती
टून टिन पों करती दौड़ रही हैं,
गंगई-मिटटी सी सुबह उतर रही है

नगर, गाँव, पुर जाग रहे हैं, जैसे
फाउंटेनपेन में स्याही भरने पर वह जाग उठती है,
नयी पत्नी उठकर खँड़ी में चली जा रही है,
बापू की खों-खों से कुत्तों की भों-भों बंद हो गयी ही,
मानवेतर प्राणियों का साम्राज्य छिन गया है,
रात दिन के पाले पड़ रही है
गंगई मिटटी-सी सुबह उतर रही है.