भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गंगा-1 (हमें आप्लावित कर दो!) / कुमार प्रशांत
Kavita Kosh से
सैकड़ों वृक्ष : जलती दोपहर : ठहरी नदी
हरियाली के धब्बे समेटे धूसर-सा दिखाई देता वन!
टहनियाँ बने हज़ारों हाथ प्रार्थनारत
आकाश की ओर अथक उठे, पुकारते :
कि बरसो
मेघ बरसो और हमें आप्लावित कर दो!
बरसो कि
बरसों हम इसी तरह प्रार्थनारत रह सकें
मौसम के घात-प्रतिघात सह सकें
कि मेघ बरसेंगे
कि यह वन और
यह जीवन-वन आप्लावित होगा
रस सरसेंगे
बरसो कि हम भी बरसें