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गंगा-1 (हमें आप्लावित कर दो!) / कुमार प्रशांत

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सैकड़ों वृक्ष : जलती दोपहर : ठहरी नदी
हरियाली के धब्बे समेटे धूसर-सा दिखाई देता वन!
टहनियाँ बने हज़ारों हाथ प्रार्थनारत
आकाश की ओर अथक उठे, पुकारते :
कि बरसो
मेघ बरसो और हमें आप्लावित कर दो!

बरसो कि
बरसों हम इसी तरह प्रार्थनारत रह सकें
मौसम के घात-प्रतिघात सह सकें
कि मेघ बरसेंगे
कि यह वन और
यह जीवन-वन आप्लावित होगा
रस सरसेंगे

बरसो कि हम भी बरसें