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गंगा-6 (अज्ञेय) / कुमार प्रशांत

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सागर और पर्वत
पर्वत और सागर
अज्ञेय को इनकी चाहना थी
लेकिन उन्हें बेहद परेशानी थी
कि दोनों ये एक जगह
कभी, कहीं क्यों नहीं मिलते?

अज्ञेय साहब,
सारा पेंच तो इसी में छिपा है
कि प्रकृति-चाहक आप जैसा भी
थोड़ा कुछ और क्यों देख नहीं सका

मैं तो दोनों को एक ही जगह पा रहा हूँ
कि सागर नहीं तो न सही
नदियाँ तो हैं
पर्वत नहीं तो न सही

पहाड़ियाँ तो हैं
पहाड़ियों को छू कर बहती यह नदी
नदी को अपने घेरे में समेटे ये पहाड़ियाँ
उन सब जगहों पर तो हैं
जहाँ यायावर की तरह फिरते रहे आप!

इसलिए थोड़ा नीचे देखना ज़रूरी है -
सागर से नीचे
और पर्वत से नीचे
और ख़ुद से नीचे

नीचे यानी छोटा नहीं
ऊपर यानी बड़ा नहीं
प्रकृति यानी गोद :
बस, समेट लो, सिमट लो, पा लो!