गंगा-जमुना / प्रतिभा सक्सेना
नैहर की सुधि अइसी उमडल हिया माँ ब्याकुल उठे हिलकोर,
आगिल क मारग बिसरली रे गंगा घूम गइलीं मइके की ओर!
बेटी को खींचे रे मइया का आँचल टेरे बबा का दुलार,
पावन भइल थल, पुन्यन भरी भइली उत्तरवाहिनी धार*!
जहि के अँगनवा में बचपन बिताइन बाँहन के पलना में झूलीं
तरसे नयन,जुग बीते न देखिन, जाइत बहत चुप अकेली!
केतन नगर, वन, पथ कइले मिली ना बिछुडी सहिलियाँ,
मारग अजाना बही जात गंगिया अकेली न भइया- बहिनियाँ!
कौनों दिसा बहि गइली मोरी जमुना,कैसी उठी रे मरोर!
मइया हिरानी रे, बाबा हिराने जाइल परइ कौने ठौर!
ब्रज रज रचे तन, श्याम मन धरे मगन, देखिल जमुन प्रवाह,
दूरइ ते देखिल जुडाय गइली गंगा,अंतर माँ उमडिल उछाह!
जनम की बिछुडी बहिनी मिलन भेल, झलझल नयन लीने मूँद,
पलकन से बहबह झर- झर गिरे, रुक पाये न अँसुआ के बूंद!
व्याकुल, हिलोरत दुहू जन लिपटीं उमडिल परेम परवाह,
दूनों ही बहिनी भुजा भर भेंटिल,तीरथ भइल परयाग!
दोनो के अँसुआ बहल गंगा-जमुना,इक दूजे में मिल हिरानी,
धारा में धारा समाइल रे अइसे, फिर ना कबहुँ बिलगानी!
लहरें- लहर सामर संग उज्जल गंगा-जमुन का मिलाप
अइसी मिलीं कबहूँ ना बिछुडलीं सीतल भइल तन ताप!
हिय माँ उमड नेह, कंपित भइल देह गंगा भईं गंभीर
चल री सखी,मोर बहिनी चलिय जहँ सागर भइल सरीर!
(गंगा का प्रवाह जब उत्तरगामी होता है तो उसका महत्व बहुत बढ़ जाता है।)