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गंगा / विजय कुमार पंत
Kavita Kosh से
जो चली आई तेरे संग प्राण, जीवन से भरी
हे भगीरथ देख कैसे रो रही गंगा तेरी
जी रही है श्वांस अटकाई हुई गंगा तेरी
दे रही है प्राण, बिसराई हुई गंगा तेरी
पास शिव के छोड़ आते पितृ तर्पण हो चुका था
रेत पत्त्थर और मैला ढो रही गंगा तेरी
पापियों को तारने आई हिमालय नंदिनी
पाप इतने बढ़ चुके है, खो गयी गंगा तेरी
देख वंशंज तो तेरे ही है यहाँ हर घाट पर
लोभ लालच जागते और सो रही गंगा तेरी
एक तेरे प्रेम से ही थी लिपटकर आ गयी
खो गयी तो फिर न आएगी कभी गंगा तेरी-----