गडरिया / समृद्धि मनचन्दा
आस्था के किसी क्षण में
मैंने तुमसे माँग ली थी सारी सृष्टि
उस वक्त मैं गडरिया होना चाहता था
मेरी भेड़ें पृथ्वी की परिक्रमा करतीं
और टूँग लेतीं सारी वस्तुनिष्ठता
मेरी एक हाँक पर पीछे चल पड़ता ... प्रेम
हम शाब्दिक नहीं रह पाते
तरल हो जाते ... तरलता भी वैसी
जो खुले अम्बर तले मन की थाप पर थिरके
मुझे मालूम होते नगण्य तथ्य
जैसे अम्बर में कितने तारे
और कितने मोड़ हैं ?
जैसे धरा नभ और आकाशगँगाएँ
किस दरवेश की नाभि के गिर्द घूमते हैं ?
किस के चिमटे की ’झन’ पर नाचती हैं
बाहरी और अन्दरूनी सभी घनिष्ठताएँ ?
एक गडरिए की मीमांसा ज़्यादा कुछ नहीं देखती
अपनी भेड़ों के पीछे चलते हुए
उसके रास्ते कच्चे हो जाते हैं
उसकी आस्था एक नदी
और पूरा संसार एक चारागाह
वह करता है दूब बारिश और छाँह की प्रार्थनाएँ
सपाट समतलों में हरित की कामनाएँ
एक गडरिए की आस्था का ईश्वर हरा होता है
इल्लियों की बस्ती में रहने वाला !