गढ़ पर चढ़कर / दिनेश कुमार शुक्ल
एक साँस में साठ सीढ़ियाँ
धड़-धड़-धड़-धड़
चढ़कर गढ़ पर
नीचे देखा राजकुँवर ने
सिर्फ झरोखा-दर्शन पाने
नीचे बिछी पड़ी थी जनता
हाथ हिला कर
उसने सबको अभय दिया
तो बजीं तालियाँ उड़े कबूतर
और चमगादड़ फड़-फड़-फड़-फड़
नये कुलीन तन्त्र की तन्त्री
झंकृत करते
उसके पीछे खड़े हुए थे
मागध-सूत नये बन्दीगण
प्रजातन्त्र के कुँवर-लाल जी
साम-दाम का दंड भेद का
पाकर शिक्षण और प्रशिक्षण
लिखकर पढ़कर
गढ़ पर चढ़कर
आगे बढ़-बढ़
प्रजातन्त्र के राजकुँवर के
स्वर में स्वर वे मिला रहे थे
दरबारी कानून-क़ायदे
में बचपन से ट्रेनिंग पायी
आये कढ़कर
कहीं छुपा देखा विरोध
तो तुरत लिया तड़
तोप-तीर-तलवार-तमंचा
वार किया दुश्मन पर
जड़कर
गढ़ पर चढ़कर
निर्दय मृगया
सघन-गहन वन
छिड़ा हुआ रण
जिन्दा चामों से
मढ़-मढ़कर
बजा रहे थे जो मृदंग वे
धमक-धमककर
सभी दिशाओं की छाती पर
चलता था घन
जीवन की कोमल काया पर
छूट रहे थे बान सनासन्
भूखा बचपन वंचित जीवन
गूँज रहा निश्शब्द समय का
त्वरित गमन
सन्-सनन्-सनन्-सन्
तभी चतुर्दिक देखा हमने
गाँव-गाँव में गली-गली में
बीच सड़क में चौराहों पर
जगदम्बा को साक्षात्
पृथ्वी को अपनी गोद में लिये
टिटकी दे-देकर दुलारते
पृथ्वी को पयपान कराते
देखा हमने जगदम्बा को
भूखी बच्ची जैसी पृथ्वी
लोकतान्त्रिक राजतन्त्र के विजयघोष में
उस हिंसक झंझा के भीतर
हमने देखा जगदम्बा को
धूल-धूसरित किन्तु प्रकाशित
करुणा के प्रकाश की आभा
पूर्ण-चन्द्र की कान्ति छिटकती
अमानिशा में अन्धकार के महाज्वार में
डूबी धरती को उबारते
देखा हमने
गाँव-गाँव झुग्गियों-मुहल्लों
गलियों-गलियों स्कूलों में
देखा हमने जगदम्बा को।