गणतन्त्र-रात्रि / बसन्तजीत सिंह हरचंद
कौन कहता है
कि गणतन्त्र - दिवस अब भी दिवस है ?
जबकि हा ! मेरे इस देश में भीड़ है
भूख की भाड़ है. ठीक से कहूँ तो
भाड़ में झोंकने को लोगों की भीड़ है ,
कैसा यह नीड़ है ?
यहाँ प्रत्येक चुनाव एक दंगल है
और इस दंगल में
प्रत्येक दल छलता है,
झूठे वादों की
कुटिल चालें चलता है ,
जीतकर हमारे ही कंधों पर चढ़ता है
हम सदा नीचे और वे ऊपर रहे ,
इस तरह सदा हम ही
नीचे रहे . नोचे गये
खींचे व खरोंचे गये .
निहत्थी भीड़ के
फूटे सिरों , बहता खून
और टूटी पसलियों के मध्य
अहिंसा औंधे मुंह गिरी है,
लाठियों से घिरी है;
यह सब क्या है ?----
अकड़ी हुई वर्दी है
रौंदी हुई खादी है,
इसीलिये तिमिरों को फाड़कर बाहर क्या
आई आज़ादी है ?
मैं ऐसे देश की धूप चखता हूँ ,
पानी पीता हूँ , हवा खाता हूँ ,
या यूँ कहिये कि लोकतंत्र पचाता हूँ ;
लेकिन डकार तानाशाही का आता है
कैसा यह नाता है ?
लोक और शाह का
आह व गुनाह का .
पैसे को लेकर व्यापारी रोता है
चिंता के साथ वह बिस्तर पर सोता है ;
दु:खों के होते भी
निर्धन मन-मौजी है
जीवन को बीड़ी के सदृश्य लेता है,
दो कश खींचकर फूंक फेंक देता है
उठकर चल देता है
इसका कोई है ?
व्यवस्था क्या सोई है ?
ताज़ा अखबारें सुबह-सुबह खबरों में
खूब खबर लेती हैं .कहतीं हैं कि
यह या वह प्रदेश मुर्दा है ,नपुंसक है
क्यों नहीं हिंसक है,
क्यों नहीं आंधी है ;
पर मान्यवर !
विवशता का दूसरा नाम
महात्मा गांधी है .
इसलिए
बस इसीलिये "बसंतजित" तू आपे में रह,
घूरे पर फूल खिला
किसी को न कह
किसी की न सह ,
और यह भी न कह कि किस तरह
आज हमारा गणतन्त्र-दिवस
दिवस न रह कर
रात्रि बन गया है.
तिमिर तन गया है
( अग्निजा ,१९७८)