भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गमन करत रबि लखि अस्ताचल / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गमन करत रबि लखि अस्ताचल मनमोहन लै गोधन संग।
उतरि रहे गोबरधन गिरि ते; रँगे रँगीले नित नव रंग॥
त्रिविध सुगंध पवन मनभावन परसत स्याम सलोने अंग।
फहरत बसन सुमन बर माला प्रगटत प्रकृति विचित्र तरंग॥
अलि-कुल-मद-हरनी अलकावलि सिर सिखिपिच्छ मुकुट छबिसार।
नयन बिसाल रसाल चिाहर पल पल मोद बढ़ावनहार॥
मुरली बरसावत मधु रस अति उमगावत सब दिसि रसधार।
सोहत सुभग सुवेष नीलमनि सुषमा अमित करत बिस्तार॥