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गमौताह इस्लामाबाद / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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पाकिस्तानक घरहुक आँटा करगिल मे जा भेलै गील,
देखियौ ने पहिरय पैजामा तैयो भेलै ढेका ढील।
काका-काका कहि किकिआयल, काका कान ऐंठिए देल,
जकरा बलेँ कुदैत रहय, से क्यौ लङटइमे संग न भेल।
अपने मुँह मिट्ठू बनि मीयाँ नङटे ठाढ़ भेल अछि आइ,
देखि लेल बापक बियाह आ ताहि संग पितियाक सगाइ।
जे न बाज आयल दुश्मनकेँ पानि पिअयबासँ रणधीर,
तकरा सोझाँ कोना नवाजाशरीफक टट्टू रहितानि थीर।
एतय प्राण अपर्ण करबाऽलै बलिदानीक समूह अपार,
ओतय हाल बेहाल देखि कय पीटि रहल सब सभक कपार।
मुसकाँड़ीमे फँसल मूस सन किछु घुसपैठी हुलकी दैछ,
बन बिलाड़ बनि बैसल सैनिक लगले तकरापर झपटैछ।
छटपटाय सब जेना पानिसँ बहरयलापर छरपय माछ,
हेहर किन्तु बुझय-छाहरिए तरमे छी जँ जनमइ गाछ।
घृणे जकर छै प्राणवायु से सज्जनताक बुझय की मोल
कबकब छोड़ि कतहु दुनियाँमे सुनलहुँ मधुर होइत छै ओल?
थीक असलमे नढया ऊपर ओढ़ि लेलक अछि बाघक खोल,
जँ समधानि बजरतै सोटा ‘हुआ-हुआ’ बहरयतै बोल।
बाबा बलेँ लड़ल फौदारी से कतेक दिन चलतै आब,
छल-छद्मक सीमा जे टपलक देबऽपड़तै तकर जवाब।
नियति कनुनियाँ धिपा रहल छै एकरे भुजवा लै कंसार
ई विश्वास पात्र नहि ककरो, चीन्हि गेलै सौंसे संसार।
सुमिरन करा रहल छनि भारत पुनि छठिहारक दूधक स्वाद,
ढाका गमा चुकल छथि, फेरो गमौताह इस्लामाबाद।