भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गर्म हवाएँ / कृष्णा वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कलयुग की काली छाया में
अंधी हुईं हवाएँ
रिश्ते-नाते शेष हो गए
रंग लहू के श्वेत हो गए
घर हो गए सराय
मायावी है समय छली
सूझ-बूझ न एक चली
ख़ाक हुए दिन आने वाले
आदिम तम घिरा गली-गली
घुला विषैला क़ायनात में
कोमल सांसें काठ हो गईं
चिंता का चिंतन रहे चलता
आशाएं बेआस हो गईं
कौन सुने अब किसको रोएं
रात-दिवस बोझिल मन ढोएं
शापित जीवन किया काल ने
सिसक मरीं सब याचनाएँ।