गला / हरिऔध
तब खिले फूल से सजा क्या था।
तब भला क्या रहा सुगंधा भरा।
तब दिलों को रहा लुभाता क्या।
जब किसी के गले पड़ा गजरा।
वह तुम्हारा बड़ा रसीलापन।
सच कहो हो गया कहाँ पर गुम।
जो कभी काम के न फल लाये।
तो गला फूलते रहे क्या तुम।
बोल जब बन्द ही रहे बिल्कुल।
तब लगे जोड़बन्द क्यों बोले।
जब कि वह खुल सका न पहले ही।
तब भला क्यों गला खुले खोले।
तब भला किस तरह न फट जाता।
जब कि रस से न रह गया नाता।
आज जब वह बहुत रहा चलता।
तब भला क्यों गला न पड़ जाता।
बारहा बन्द हो बिगड़ जावे।
बैठ जावे, घुटे, फँसे, सूखे।
पर गले की अजब मिठाई के।
कब न मीठे पसंद थे भूखे।
तब कहाँ रह सका सुरीलापन।
जब कि सुर के लिए रहा भूखा।
सोत रस का रहा बहाता क्या।
जब कि रस को गँवा गला सूखा।
तो पिलाये तो पिलाये क्या भला।
जो उसे जल का पिलाना ही खला।
तो खिलाये तो खिलाये क्या उसे।
जो खिलाये दाख दुखता है गला।
हो सके किस तरह उपज अच्छी।
जब कि उपजा सकी नहीं क्यारी।
तब उभारी न जा सकी बोली।
जब कभी हो गया गला भारी।
जब कि वह पुर पीक से होता रहा।
जब रहे उस में बुरे सुर भी अड़े।
मोतियों की क्या पड़ी माला रही।
तब गले में क्या रहे गजरे पड़े।