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गवाही / रजत कृष्ण
Kavita Kosh से
तालाब में फेंका गया कंकड़
कितना ही छोटा हो
हलचल मचाए बिना
नहीं रहता ।
प्रतिरोध का स्वर
चाहे एक ही कण्ठ से
क्यों न फूटा हो
पूरा हवा में गुम नहीं होता ।
पीड़ा दबाए कुचले गए लोगों की पीड़ा
कभी पोते को कहानी सुना रहे
दादा की आँखों में उतरता है
तो कभी उन कण्ठों से
फूट पड़ती
जो जमींदार के खेतों में
कटाई करने आई बनिहारिनों की
होती है ।
कितने ही जतन कर लिए जाएँ छुपाने के
ख़ून रंगे हाथों की गवाही
कई बार
कटे हुए नाख़ून ही देते हैं ।।