गहन प्रतीक्षा के वन में / सर्वेश अस्थाना
गहन प्रतीक्षा के वन में इक पतली पगडंडी आशा की।
आंखों का सूरज थक कर जब,
डूब गया हो पलक बन्द कर,
तुम्हें ढूँढ़ने गयी पवन भी,
हो हताश गति स्वयं मंद कर।
आज अंधेरा लेकर आया है टूटे कुछ पत्र शाख के,
कौन समझ पायेगा बातें गहन तिमिर तम की भाषा की।।
गहन प्रतीक्षा....
लेकिन कहीं दूर मुस्काती हैं
चन्द्रप्रभा सी मृदुल रश्मियां,
और कहीं उस छोर सजी सी
महक रही हैं मिलन बस्तियां।
धीरे धीरे कटे सघन वन, मन मृदंग की थाप खिल उठी,
वीणा की झंकार बने फिर दुल्हनियां रूठे ताशा की।।
गहन प्रतीक्षा...
अरे प्रतीक्षा सगी बहन है
प्रेम नाम के राजकुँवर की,
ज्यों पराग के साथ साथ ही,
नियति लिखी है भृंग-भ्रमर की।
उपवन की सारी खुशबू है
पुष्प पटल के मुखरित मन से,
तितली के पंखों में सिमटी पुष्पराज की प्रत्याशा की।।
गहन प्रतीक्षा....