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ग़ज़ल-4-6 / विनीत मोहन औदिच्य

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समझे न ये ज़मानः कभी बेअसर मुझे
जीवन के हर सवाल से लगता है डर मुझे

भटका हूँ मैं भी आज ग़ज़ालः तेरी तरह
सूझे नहीं सराब में कोई डगर मुझे

हैवानियत ने लूट ली है लाज वक़्त की
ये रोजनामचे से मिली है खबर मुझे

गिरगिट ही बनके मिलती हैं सबको बुलंदियाँ
पर लाख चाह कर भी न आया हुनर मुझे

बेचैन रूह पा न सकी 'फिक्र' कुछ सुकूं
कैसे अता करेगा खुदा पाक घर मुझे
5
जिंदगी की कशमकश से जूझता रहता हूँ मैं।।
हार जाता हूँ कभी औ जीतता रहता हूँ मैं।।

बेरहम सी उलझनों ने घेर रक्खा है मुझे
कुछ खयाली बारिशों में भीगता रहता हूँ मैं।।

काट कर दुनिया से खुद को गर्दिशों के दौर में
याद के बिखरे खजाने ढूंढता रहता हूँ मैं।।

है मेरी तकदीर खोटी वक्त की है मार भी
खाली कागज पर लकीरें खींचता रहता हूँ मैं।।

'फ़िक्र' दुन्या से शिकायत भी करूँ तो क्या करूँ
उस खुदा की हर रजा को मानता रहता हूँ मैं।।
6
जाने ये कैसा जमाने का असर लगता है
आज इंसान को इंसान से डर लगता है।

मेरी फितरत ही नहीं शोर शराबा करना
दर्द होता है मगर जख्म जिधर लगता है।

सारी दुनिया में रहे आज तलक हम रुसवा
उसके दर जाना कयामत का सफर लगता है।

बात ही बात में पत्थर जो उठा लेता हो
वो खतावार मुझे काँच का घर लगता है।

मुझमें ये ताब कहाँ उसके मुकाबिल ठहरूँ
चाक सीने में निगाहों का जो शर लगता है।

कारवां याद का तो साथ चला था लेकिन
जिस्म बेजान मुझे खुश्क शजर लगता है।

फ़िक्र के साथ नहीं कोई भी रंजिश उसकी
पास होकर वो मुझे दूर मगर लगता है।