भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़म तेरा मुझे अपनों का अहसास दिलाये / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़म तेरा मुझे अपनों का अहसास दिलाये
मैं आज भी तुझसे हूं बहुत आस लगाये

जब बात चली मेरे हसीं जुर्मे-वफ़ा की
इक कातिले-मासूम1 था सर अपना झुकाये

सुनकर किसी बरबादे-मुहब्बत की कहानी
सब हंस पड़े लेकिन मेरे आंसू निकल आये

आवाज़ तो दी है तुझे बेसाख्ता लेकिन
गुज़रे हुये लम्हे की तरह तुम नहीं आये

ख़ुर्शीदे-ग़मे-दहर2 की जब तेज़ हुर्इ धूप
याद आये तेरी चश्मे-करम3 के घने साये

इक जज़्ब-ए-पुर कैफ़े-मुहब्बत की बिना4 पर
इक अजनबी चेहरे को हूं महबूब बनाये

अब न आस है तेरी,न तेरा ग़म,न तमन्ना
तूने भी अजब दिन मेरे महबूब दिखाये

इक साकी-ए-महवश5 है तसव्वुर6 में 'कंवल’ के
सावन की महीना है जवां अब्र7 हैं छाये



1. सरल स्वभाव का हत्यारा 2. सांसरिक कष्ट का सूर्य 3. कृपादृष्टि
4. आधार 5. चांद जैसा सुन्दर 6. कल्पना 7. बादल।