ग़लतफ़हमियों का बोझ / महेन्द्र भटनागर
बरसों के पनपते-बढ़ते रिश्तों को
निकटता और आत्मीयता को
ग़लतफ़हमी
अक्सर पुरज़ोर झकझोर देती है
तोड़ देती है,
हमें एक दूसरे के विपरीत
मोड़ देती है !
हमारे सौमनस्य का अतीत
झूठा बेमानी हो लेता है,
हमारे सद्भाव का इतिहास
महज़ एक स्वाँग साबित हो
सारे व्यतीत घटना-चक्रों को
अकल्पित अद्भुत सन्दर्भों की पीठिका में
प्रस्थापित कर देता है !
हम
अन्यथा के प्रति आश्वस्त हो
सचाई की व्याख्या
बदलने के लिए
विवश हो जाते हैं,
अँधेरे में
और अँधेरे में
और-और अँधेरे में
खो जाते हैं !
ग़लतफ़हमी
मानव-आस्था के मर्म को
निरन्तर विदलित करती है,
जीवन-रस को
एक और अनेक ग़लतफ़हमियाँ
निरन्तर खोखला कर
अवशोषित करती हैं !
ग़तलफ़हमियों का शिकार बनना
सचमुच
एक शाप है,
ग़लतफ़हमियों को बार-बार भोगना
सचमुच
एक विषम शाप-ज्वर संताप है !
न जाने
किन शापों के फलस्वरूप
मुझे
ग़लतफ़हमियों के तोहफ़े,
मिथ्या आरोपों
और लांछनों के तोहफ़े
खूब मिले हैं,
जिन्हें
जीवन की पीठ पर लादे
मैं घूम रहा हूँ !
ग़लतफ़हमियों का यह गट्ठर
अपने आकार में
और कितना फैलेगा-बढ़ेगा ?
यह मेरी जिजीविषा के वेग को
और कितना रोकेगा ?
क्या सारे रिश्तों को तोड़ दूँ ?
ग़लतफ़हमियों के इस बोझ को
एक-बारगी फेंक दूँ ?
व्यक्ति और समाज की
चिन्ता से मुक्त
जीवन को
निर्जीव पदार्थ सत्ता से जोड़ दूँ ?
संवेदन का गला घोंट दूँ ?