ग़ुलाम देश का मज़दूर गीत / दिविक रमेश
एक और दिन बीता
बीता क्या
जीता है पहाड़-सा
अब
सो जाएँगे
थककर ।
टूटी देह की
यह फूटी बीन-सी
कोई और बजाए
तो बजा ले
हम क्या गाएँ ?
हम तो
सो जाएँगे
थककर ।
कल फिर चढ़ना है
कल फिर जीना है
जाने कैसा हो पहाड़ ?
फिर उतरेंगे
बस यूँ ही
अपने तो
दिन बीतेंगे ।
सच में तो
ज़िन्दगी भर हम
अपना या औरों का
पहाड़ ही ढोते हैं ।
बस
ढोते
रहते हैं ।
सुना है
हमारी मेहनत के गीत
कुछ निठल्ले तक गाते हैं ।
सुना है
हमारे भविष्य की कल्पना में
कुछ जन
कराहते हैं ।
कुछ तो
जाने किस उत्साह में
हमारे वर्तमान ही को
हमसे झुठलाते हैं ।
हमारा भविष्य तो
ख़ुद
हमारा बच्चा भी नहीं होता ।
पेट में ही जो
ढोने लगता हो ईंटें ।
पेट में ही जो
मथने लगता हो गारा ।
पेट में ही जिसको
सिखा दिया हो
सलाम बजाना ।
पहले ही दिन से
ख़ुद जिसने
शुरू कर दिया हो
कमाना ।
कोई स्वप्न गुनगुनाए
तो गुनगुना ले
वर्ना
हमारा बच्चा भी
हमारा भविष्य
नहीं होता ।
होता होगा
होगा किसी का भविष्य
किसी के देश का
किसी के समाज का
लेकिन
हमारा नहीं होता ।
होगा भी कैसे
हमारी परम्परा में
ख़ुद हम कभी
अपना
भविष्य नहीं हुए ।
हम तो बस
सीने पर रख
महान उपदेशों को
सो जाते हैं
थककर ।
इतना ही क्या
काफ़ी नहीं
कि एक दिन और
बीत गया
पहाड़-सा ।
अब रात आई है
सुख भरी रात
कौन गँवाए इसे ।
सुबह तो ससुरी
रोज़
भूख ही लगाती है
क्यों करें प्यार
फिर ऐसी सुबह से ?
कैसे थिरक उठे पाँव
कैसे गाएँ ये कण्ठ
कैसे मनाएँ ख़ुशियाँ
सरकारी उत्सवों में
नाचते
नचभैयों-से ।
कहाँ है आज़ाद
यह ग़ुलाम देश
और कहाँ हैं आज़ाद
ये हम?
आज़ादी की परख
देश की सुबह से होती है
और सुबह तो हर रोज़
काम पर
भूखा ही भगाती है ।
पर चलो
एक दिन और बीता
बीता क्या
जीता है पहाड़-सा
अब
सो जाएँगे
थककर ।