गाँव में वसन्त / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
गया गंजाशिर शिशिर आया सुरम्य वसन्त,
ग्राम, गृह, वन, खेत, आँगन हो गए श्रीमन्त।
धवर चिरोखा, सिरोटी फाखता सुकुमार,
टूँ टुँ रूँ करने लगे सुरबीन को झंकार।
छिपा झाड़ों में दबक कर गोल-गोल बटेर,
वही फूलों से गुलाबी हवा गन्ध-बखेर।
‘सात सखियों’ ने दिए अण्डे सलोने पार,
कत्थई चित्तियाँ जिन पर पड़ीं बूटेदार।
खरघुसी फुदकी फुदकती झाड़ियों में मग्न,
नाचती सुनहली पीलक केलि में संलग्न।
कभी उड़ इस पेड़ से उस पेड़ के जा पास,
घनी ऊँची डालियों पर बैठती सोल्लास।
बया ने बुन दिए तुम्बी की शकल के गोल,
घोंसले लटके हवा में झूलते जो डोल।
तान से अपनी कोयलिया हृदय कर दो टूक,
चोट पहुँचाती केलेजे को पवन के कूक।
घोलते अमरस हृदय में नर-बबूने बोल,
रुपहली ऐनक लगाए नयन में अनमोल।
बिन्दियों वाली पहन कर छींट मृदु अभिराम,
हरी-भूरी लाल मुनिया गा रही अविराम।
प्रकृति ने हर ली गगन की नीलिमा अम्लान,
नयन के जादू चले अनजान।
लहर से भीगे हृदय-हिन्दोल,
मचकियाँ, पेंगें बढ़ाते डोल।
बज उठे झाँझन, बजे सुर-तार,
छन्द के नव बेल-बूटे काढ़।
दिन गुलाबी, कुंकुमी सन्ध्या, सुहानी रात,
झूमते मद के नशे में बावले तरु-पात।
मटर हँसते वेणु-वन में, वृक्ष पत्ते छोड़,
हो गए अंगारवाले लाल लोई ओढ़।
फलीं मेथी माख मधु में नयन बरछे तान,
खिली गोभी कोहनूरी सूर्य-किरण-समान।
कुसुम-गुच्छों से ढकीं तरु-डालियाँ अभिराम,
ओर उन पर भ्रमर टोपी-से सुहाने श्याम।
नील-मणि-सी खिली तीसी नीललोचन खोल,
मदनमस्तीली लहर के झूलने में डोल।
लद गई टहनी रहर की छीमियों से पीन,
खिले जिनमें फूल पीले कनक-से रंगीन।
बावले बन-बेर, नीबू, ताम्र-पत्र प्रियाल,
नीम, जामुन, बेल चेतन कुहुक से वाचाल।
मंजरे अमराइयों में आम,
नकूवा, कगवा, जमुनिया श्याम।
दूधिया, सुगवा, सिन्दुरिया लाल,
लदी जिनसे पुलक जीवन डाल।
दूधमटिए मटर-से अनमोल,
बौर में निकले टिकोले गोल।
कंजई, फ़लसई आँखें खोल,
चटुल भौरे रहे जिन पर डोल।