भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँव वृंदावन करूँगी / निर्मला जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम डगर की धूल हो, सुनना भला लगता नहीं है
एक दिन माथे चढ़ाकर मैं इसे चंदन करूंगी।

मंदिरों में आजकल मेले
बहुत जुड़ने लगे हैं।
किंतु भीतर के विहग दल
बिन कहे उड़ने लगे हैं।
तुम बनो अब गीत या गीता कि सब स्वीकार होगा
सुन सकोगे तुम, इसे जब मीत मैं वंदन करूंगी

बीहड़ों में हाँफती यह
जिंद़गी पल-पल थकी है।
कामना मेरी अभी तक
पूर्ण भी ना हो सकी है।
अश्रु बन झरती रही, मैं रेत के सुनसान तट पर
किंतु, मैं मधुगान से यह गांव वृंदावन करूंगी।

भोर की हर किरण को मैं
बांध लेना चाहती हूँ।
तिमिर की सारी दिशाएं
लांघ लेना चाहती हूँ।
बहुत दिन तक मौन रहकर फिर कहीं जो खो गया था
आज उस स्वर को तुम्हारे द्वार पर गंुजन करूंगी।

बहुत दिन से कर न पाई
मैं व्यथा पर मंत्रणाएं।
इसलिए मन आंधियों के
बीच सहता यंत्रणाएं।
प्रश्न पर हर प्रश्न अब करने लगे हैं सांतिये भी
तुम अगर उत्तर बनो तो सजल अभिनंदन करूंगी।