भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाढ़ा / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
गाढ़ा मेरा अटक रहा है
धक्का मारूँ-जोर लगाऊँ
टस-से-मस
नहीं हुआ है।
जो देखे सो हँसे, बिराए
उमड़े, भाव तरल थिराए
कोई न आवै-हाथ लगावै
कहता था मैं जिसको अपना
कन्नी काटै-दबे पाँव
घर खिसक रहा है।
मेरा होना, ना होना है
झाँक रहा कोना-कोना है
जो कुछ माल-मता है मुझ पर
बिकता सब औना-पौना है
जो कहता वो करता मानुष
वो ही भरता रिक्त ताल को
वश में करता रूद्र काल को
पढ-पढ पोथी आँखें सूजीं
दुनिया देख रहा हूँ दूजी।
नहीं और है
नहीं छोर है
सागर जैसे उमड़ा आये
तिनके जैसा भटक रहा हूँ
2003