गाण्डीव (कविता) / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
शब्द, ध्वनि से और मेरे छन्द, स्वर से गेय!
घोष से, टंकार से, उद्गार से आग्नेय!
मेघ उठते दामिनी पायल पहन झंकार!
और, उठता सिन्धु में फुफकार अजगर ज्वार!
वायुमण्डल में बवंडर, चक्र वृत्ताकार!
सनसनाता जब कभी मैं क्रोध से हुंकार,
भेदता भूगोल के पाषाण उदर विदार।
उगलता तब वेग से ज्वालामुखी अंगार,
राख लावा, गैस, बादल, पंक के अम्बार।
घने काले रूपवाले उष्ण काजल, धूल,
धुआँ के पर्वत उड़ाता और उल्का-फूल।
जला डाला घेर खाण्डव को गहन विकराल।
धधकने दो आज फिर अविराम,
तिमिर-वन की निविड़ता को श्याम।
दहकने दो धधकने निसपन्द,
अजगरी गतिहीनता को मन्द।
भस्म होने दो निगूढ़ पच्छन्न,
रूढ़ि के झंखाड़ को अवसन्न।
मत उँड़ेलो इन्द्र जल की धार,
छोड़ कर बौछार बारम्बार!
डगमगाते चरण में निष्प्राण,
आज भरने दो मुझे तूफ़ान।
दान देने गलित को दो प्राण,
रुग्ण जग को शक्ति, जीवन-दान।
आज फिर वंदिनी माँगती बलिदान!
माँगती है धरा बलि, तारुण्य का दो दान!
माँगती रंकिनी पृथ्वी कुंकुमी परिधान,
सिसकियाँ भरती जगाती सुबह-साँझ मसान।
रक्त के दो लाल उबटन से उसे शृंगार,
पिन्हा भारी दाम का दो पैरहन गुलनार।
चीन, बर्मा, मलाया सर्वत्र चारों ओर
भुवन के सब खण्ड में कर सिन्धु-गर्जन शोर।
आइए, हम सब मनाएँ क्रान्ति का त्यौहार,
फँूक रण के लोमहर्षी शंख बारम्बार।
सबल के द्वारा अबल के दमन में मदमत्त,
दम्भ के आक्रोश में, अन्याय में उन्मत।
काढ़ कर फन लपलपाता क्रुद्ध सर्पाकार,
सनकता गाण्डीव छूटे रननझन टंकार!
जिस तरफ देखें उधर हो जंग का मैदान!
खोदता धन-तन्त्र की हो क़ब्र हिन्दुस्तान
उठ रही हो सिन्धु-गंगा में तरंग हिलोर,
मुस्करा जिनमंे रहा हो इन्द्रधनुष विभोर।
संगठित हो रही जन की शक्ति हो विकरार,
रौंदते हों वक्ष गज के मेमने लाचार।
गगन की दुहित उषा ज्योतिर्वसाना दिव्य,
झिलमिलाती अरुण प्राची के क्षितिज पर नित्य।
षोड़शी की भंगिमा से मधुरिमा से युक्त,
अमृत टपकाती नयन की रश्मियों से मुक्त।
खोल देने विश्व के हित जागरण का द्वार,
दुर्विमोचन, स्वस्तिवाचन छन्द का भण्डार।
किन्तु, कितने दिन रहेंगे मनुज बन कर दीन?
गै़र का आश्रय फिरेंगे ढूँढ़ते मतिहीन?
और कितने दिन रहेंगे द्विपद मानव रंक?
सर्वहारा, खिन्न, पाण्डुर और दुर्बल कंक?
अपशकुन के चिह्न होते प्रकट अपने-आप,
सूचना देने अमंगल की लगे चुपचाप।
मेघ के ही बिना बिजली फँूकती रणतूर्य,
झुलसते वन-फूल, जलते चाँद, तारे, सूर्य।
साँस में भरने लगी है मृत्यु अपनी गन्ध,
लहरता है जेठ का पागल समीरण अन्ध।
डालते हड्डी किलों में, मन्दिरों में काग,
ध्वजा बुर्जों की पुरानी लगी गिरने काँप।
बन्धु का हक़ बन्धु खाते छù-छल से लूट,
भेद-भय से द्यूत कौशल से, कला से कूट।
पेट में तूफान उठते, कुलबुलाती आँत,
हिंसते कंगाल मानव दाँत से घिस दाँत।
सर्पिणी-सी गरल दुर्जर त्याग,
भूख की ज्वाला भभकती जाग।
भूख का क्रेटर उगलता आग,
भूख का फैला धबीला दाग़।
ग्लानि के, अपमान के उपमान,
हाड़ के कंकाल प्रेत समान।
खेत, बाग़, पहाड़, जंगल, खान,
लुटे निश्चल-से पड़े सुनसान।
धन-कुबेर, अमीर साहूकार,
भेड़िए मक्कार पहरेदार!
दाव पर सर्वस्व अपना हार,
हे हरे, हे कृष्ण विकल पुकार!
दग्धहृदया द्रौपदी जाने न कितनी हाय?
अश्रुपूर्ण विलोचनों से रो रहीं निरुपाय!
बना दुःशासन कुटिल शठ क्रूर,
न्याय से शासन कपट का दूर!
भेद की खाई न क्यों पट जाय?
जीर्ण अम्बर दम्भ का फट जाय?
एक क्षण है एक वर्ष समान!
एक दिन है एक कल्प समान!
आ रहा कल्पान्त का है काल!
पाप-शोधन के लिए होकर भयंकर ज्वाल!
चाहिए जग को न ऐसा पंगु नीति-विधान,
जो बना इन्सान को इन्सान से दे श्वान!
मैं करूँगा एक नूतन सृष्टि का निर्माण,
चाहिए जग को न सामन्ती, नवाबी शान!
मैं रचूँगा एक नूतन वर्गहीन समाज,
चाहिए जग को न मिथ्या धर्म-रस्म-रिवाज!
प्राप्त क्यों सबको न हो स्वातन्त्र्य एक समान?
राष्ट्र के हित के लिए हो स्वार्थ का बलिदान।
लिख रहा हूअ नील घन में दामिनी के गान,
चाहिए जग को न आज कुरान, वेद, पुराण!
लिख रहा हूँ भाग्य उनके जो थके हैं हार,
पंथ में जिनके बिछे हैं शूलियाँ अंगार!
लिख सकी जिनको न ब्रह्मा न जिनके आँसुओं की पीर!
लिख रहा हूँ भाग्य उनके जो दलित हैं धूल,
झप, तिताला, कान्हड़ा, टोड़ी समझ मत भूल!
कोकिलाओ बंसुरी गमकैं लगा मत झूम!
तुम्हें पंचम की परन-तानैं नहीं मालूम!
शब्द, ध्वनि से और मेरे छन्द, स्वर से गेय!
घोष से, टंकार से, उद्गार से आग्नेय!
नाचता नगराज के हिम-शृंग पर नटराज!
दहल उठता कवचीोदन राग से वनराज!
वमन करती रक्त पृथ्वी लालमी-सी फूट,
शृंगवाले पर्वतों के शृंग गिरते टूट।
ज्येष्ठ के रवि की रुपहली किरण होती क्षीण,
पिलौंहा मृग-चिह्न मिटता चन्द्रमा का हीन।
मैं न वह ज्वालामुखी हूँ अर्द्धनिद्रित, मन्द,
गर्त जिसके कण्ठ का पंकिल शिला से बन्द।
दूह पर जिसके उगे तरु-झाड़ काँटेदार,
जटावाले लता-पौधे, अधमरे झंखाड़।
अर्द्धचन्द्राकार, प्रियदर्शन, प्रलम्ब, कराल,
दिव्य गाँठों से रहित, मैं काल का भी काल।
हवा मेरे बाण की है पाँख, बिजली धार!
नाग प्रतयंचा, अनल फल, पुच्छ उल्का-झाड़!
वैजयन्ती नामवाली शक्ति से भी उग्र,
रुद्र मेरा रूप, गर्जन मर्मभेदी वज्र।
प्यास से सन्तप्त जन के लिए अमृत समान,
फोड़ कर कैलास करने मानसर निर्माण।
मानसर ऐसा कि सबके हित सुलभ उपभोग्य,
स्वच्छ जल से, भरा सबके सदा पीने योग्य।
कब्र के शव को जगाने कब्र-तल को फोड़,
नींद में सोए हुओं को नींद से झकझोर।
नोचने दुर्योधनों के ताज का पुखराज,
फँूकने शासन-सभा का मोरपंखी साज।
ध्वनित करने अग्नि-लिपि में आत्तिनाशन गान,
स्वर्ण-केसर लहलहा देने शिशिर में म्लान।
घनन रनघन झनन घनघन गूँजता गाण्डीव!
वेधता घन पक्षिराट सुपर्ण-सा उद्ग्रीव!
(रचना-काल: नवम्बर, 1948। ‘नया समाज’, मार्च, 1949 में प्रकाशित।)