गिरिडीह पर्व / अमरेंद्र
" ये कहाँ ले आए रथ को हाँकते अब नाथ?
किस तरह गिरि शोभते, पकड़े हुए ये हाथ!
वन सघन देखा था मैंने पर न गिरि का प्रांत,
झूमती नदियाँ हैं, लेकिन फिर भी कितने शांत!
" बादलों से बात करने को विकल ये वृक्ष,
क्या यही पर्वत वही है, जिसको कहते ऋक्ष?
गिरि-शिखर से बात करते ऊँचे उठते पेड़
देख कर यह मेघशावक आके जाते छेड़।
" लग रहा है बादलों से ये करेंगे बात,
यह सघन छाया कि जैसे हो रही हो रात।
पर्वतों पर लोटतीं नदियों का मधुमय राग
डीह गिरि का देख पाई, धन्य मेरा भाग!
" ये बही जातीं जो नदियाँ, क्या हैं इनके नाम?
पर्वतों, वन का, सलिल का धन्य है यह धाम!
और इनमें भी नदी यह, क्या अनोखी धार,
बाँध कर जो बह रही सौन्दर्य का संसार।
जो सुना यह कर्ण ने तो जग गया था योग
भाव जागे इस तरह, ज्यों, सुरभुवन के लोग।
हो मुदित कहने लगा राधेय, मन को खोल,
घोलने वह लग गया था स्वाति कण-सा बोलµ
" ठीक ही तुमने कहा, यह धन्य सचमुच धाम,
काटती नदियाँ चका हैं, हो चकित अविराम।
और पंचानन की सबसे ही अलग यह धार
ढो रही हैं नील मणि-सी; ये शिलाएँ, हार।
" बढ़ रही किस वेग से हैं मेघवन की ओर,
घेरती गिरि-डीह को है, बासुकी की डोर;
युग हुए, आखेट मंे जब मैं भटकता भ्रांत,
आ गया था मैं अकेले ही विजन यह प्रांत।
" क्या कहूँ कैसा लगा था, क्या हुआ था बोध,
टूट कर जैसे बहा हो कुछ कहीं अवरोध।
इस नदी की धार से कहता मुझे था कौन,
याद आई जन्म की मेरी कथा, जो मौन।
" यूं लगा मैं बह रहा हूँ, पेटिका में शांत,
और पंचानन सँभाले जा रही उद्भ्रांत;
पर्वतांे और जंगलों के बीच का ले पंथ,
बह रही चंपा-दिशा में हाँकती-जल-रंथ।
" क्यों वृषाली बोलता है अब मेरा विश्वास,
जन्म की मेरी कथा भी आस ही बस पास।
माँ यहाँ तक आ गयी होगी, यही है बात,
हाँ, बहुत होगी भयावह और रोती रात।
" वह शिला-सी सह गई होगी गहनतम पीर,
टूट जाए देख जिसको धीरता का धीर;
यह तो माँ का पुण्यफल है, जो खड़ा हूँ आज,
नीड़ में अंडज पड़ा था, आज सर पर ताज।
" और पंचानन यही होगी कवच-सी साथ,
कुछ नहीं इससे अलग लगती है मुझको बात;
सामने में दुर्ग यह जो देखती हो पास,
काल-विधि के घाव का करता हुआ उपहास।
" स्यात कल यह बोल पाए आज जो है मौन,
किस तरह सच बोलता है, जानता है कौन!
कुछ भी हो लेकिन मेरा तो बस यही विश्वास,
माँ के आँसू, चिह्न पैरों के यही हैं पास।
" जो नहीं, तो क्यों सिहरती इस तरह यूँ देह,
भीगता हूँ मैं, उमड़ता, माँ का शीतल स्नेह?
दे कोई आवाज नारी, माँ की लगती हाँक,
उस समय तो बस यही समझो हृदय दो फाँक।
" मैं बना व्याकुल विचरता, इस तरह उद्भ्रांत,
क्यों सही कहने से डरता है विकल यह प्रांत;
पर, तभी ऐसा भी लगता है, सिहरता मौन,
दूर उस पूरब के कोने से ये कहता कौन?
' यह बहुत अभिशप्त थल है, सो रहा है शोक,
एक निर्वासित त्रिया के मोह का मधु ओक। '
" क्यों छुपायी जा रही है, मुझसे मेरी बात?
पूछता हूँ, पर नहीं कुछ बोलते हैं, तात।
" क्यों कभी लगता, कहीं अभिशप्त ही यह प्रांत,
कुछ घड़ी के बाद क्यों मन थकित होता श्रांत?
आज तुम हो साथ तो बीती सुनो वह बात,
भूल मैं पाया नहीं हूँ नियति का वह घात।
" शब्दभेदी वाण मेरा इस नदी के पास,
कर गया दुर्भाग्य मेरा क्रूरतम उपहास।
वह तो मुनि की गाय ही थी, धँस गया था वाण,
गाय के निकले थे पीछे, पहिले मुनि के प्राण।
" घोर दुख में, क्रोध में मुझको दिया था शाप,
' जब विवश होगे, न देगा साथ भी यह चाप"
पर नहीं यह सोचना कुछ भी हूँ मैं भयभीत
कहने भर को है नचाता सर्प को संगीत।
" इस तरह के शाप से डरता कहाँ, जो वीर?
तोड़ सकता वह नहीं दुर्भाग्य की जंजीर।
कर्म तो प्रारब्ध मणिधर के फणों पर डाल,
इस विजय पर तान शर को है नँचाता काल। "
मुस्कराई थी वृषाली; स्वर्णचंपा-हास,
छू गया था कर्ण को सहसा मृदुल मधुमास।
कुछ हिले अधरों से इतना ही कहा, हो पास,
छू गया था कर्ण को सहसा मृदुल मधुमासµ
" मैं नहीं भयभीत होती, हो भले ही शाप,
अंगपति की मैं त्रिया हूँ, क्या डराए ताप!
पर मुझे भी बाँधता क्यों यह चका का रूप,
देख जिसको बहुत चंचल अंग के हैं भूप। "
देह सिहरी कर्ण की लेकिन हुआ न ज्ञात,
भाव रोमिल जग गये थे, जो बहुत अवदात।
नव शरत-सा पारदर्शी मन-हृदय को खोल,
घोलने वह लग गया था स्वातिकण-सा बोलµ
" हाँ, कहा तुमने उचित ही, थिर न रहता धीर,
बाँध लेती जब मुझे सुधि तोड़ कर प्राचीर।
आँधियों के बीच पड़कर एक पल्लव दीन,
दूर नभ से हो गया हो शून्य पर आसीन।
" पर तुम्हारे साथ हूँ, तो चित्त भी है शांत,
अब न होगा, हो चुका जितना हृदय यह भ्रांत।
ज्वार को चुन-चुन समेटे किस तरह गंभीर,
क्षुब्ध रत्नाकर हुआ है शांत धारे धीर।
" पर वृषाली, आज भी न क्यों रहा यह ज्ञात,
साँझ की यह लालिमा है, यह नहीं है प्रात;
दे रहा देखो क्षितिज है, काल का संकेत,
और कुछ ही बाद गिरि ये; ज्यों, दिखेंगे प्रेत।
" दुर्ग के भी जागने का हो गया है काल,
किस तरह से आ रही छाया सँभाले चाल;
क्यों नहीं अब लौट जाएँ हम नगर की ओर,
खींचता है दिवस अब तो रश्मियों की डोर।
" क्या नहीं लगता कहो, अब लौटने का काल,
देखती भी हो, प्रतीक्षा में खड़े दिक्पाल।
पर न जाने क्यों मुझे यह रोकता गिरि-देश,
और पंचानन के स्वर्णिम ये बिखरते केश।
" मन तो होता बह चलूँ, मुझको बहाए धार,
स्यात मुझसे आ मिले भूला हुआ संसार।
तुम कहोगी, भं्रात मन का यह बँधा अवसाद,
कर रहा एकान्त पाकर हिंस्र पशु-सा नाद।
" मैं नहीं कहता कि मिथ्या है तुम्हारी बात,
पर बिताई जब कभी मैंने यहाँ पर रात;
सिसकियाँ मैंने सुनी हैं, विजन जब भी प्रांत,
चाँदनी की देह से लिपटा हुआ हो ध्वांत।
" इस नदी की धार दिखती शांत, चंचल झील,
और गिरि ये; ज्यों ठुकी-सी हो हृदय पर कील;
रात के पहले, वनों में विहग के कुछ बोल,
उस नदी के पार तक जाते हैं करुणा घोल।
" ओस की बूँदों के तिप-तिप भेदते आकाश,
चाहता बचना, मुदा यह बाँध लेता पाश;
पत्तियों की आहटें, किसके डरे-से पाँव?
फूल का खिलना लगे, ज्यों जागता हो गाँव।
" और कलियों का चटकना; ज्यों, हो पद की चाप,
पुण्य के पीछे लगा देखा है मैंने शाप।
स्यात तुमको भी नहीं होगा कभी विश्वास,
क्यों यहाँ ऐसा लगे, जीवन-मरण हैं पास। "
कुछ समझ पाई वृषाली, कुछ रहा अज्ञात,
हो गया मन एक क्षण में अधखुला-सा प्रात।
बोलना कुछ चाहती थी, बोल निकले और,
वे भी जैसे लू से झुलसे हो सलेटी बौरµ
" क्यों नहीं विश्वास हो, जब है तुम्हें ही, नाथ,
पर इसे पकड़े रहे क्यों, आज जब मैं साथ।
कुछ अगर बातें करें, तो मन लगेगा और,
उधर देखो, कौन-सा गिरि सर उठाए गौर।
" कौन नभ के पार, यह किसको निमंत्राण मौन?
चोटियाँ बाँहें उठाए हैं, वहाँ है कौन?
और फिर यह भी बताओ, यह विजन क्यों, लोक?
भाग्य के शर से बँधा नीलांग शीतल शोक। "
यह विजन क्यों लोक? सुनकर जग गई फिर पीर,
बज्र मन को चीरकर बाहर गिरा हो धीर;
सामने जलते विपिन से ज्यों उठा हो धूम,
झूमती लपटें उठीं पछिया हवा को चूम।
कर्ण ने देखा खड़ा अर्जुन लिए गांडीव,
दूर तक जलता विपिन में मर रहे हैं जीव;
नागवंशी नारी-नर का हो रहा है शोर
कर्ण ने पकड़ा विजय को देख उसकी डोर।
बड़बड़ाया, " जीवहंता, नारीहंता, नीच,
जल गया है नागकुल जलते विपिन के बीच।
साधता हूँ मैं विजय पर लो सँभालो वाण,
तीन लोकों में मिलेगा क्या तुम्हें अब त्राण!
खो गया है कर्ण सहसा छोड़ कर यह लोक,
क्या हुआ होता, वृषाली जो न देती टोकµ
" क्या हुआ, क्यों इस तरह विचलित हुए हैं नाथ?
क्यों विजय पर इस तरह से रंेगते हैं हाथ?
" किसको रहे धिक्कार हो, कुछ भी नहीं तो पास,
क्या कोई संकट निकट है? मिल गया आभास?
दूर तक तो सामने कुछ भी नहीं, हो त्रास,
क्या उचित है, इस तरह से साथ का परिहास? "
सुन वृषाली को हुआ चेतन, सजग, फिर शांत,
एक स्वर गूँजा यही फिर "क्या हुआ था कांत?"
हो गया इस्थिर अचानक, ढेव लेता कूल,
शरतमन से कर्ण बोला, झाड़ कर सब धूलµ
" कुछ नहीं, बस याद आई थी पुरानी बात,
इसलिए लेकर विजय को तन गये थे हाथ।
क्या बताऊँ मैं तुम्हें यह नागकुल का लोक,
दिख रहा है जो अभी अब नीलगिरि का शोक।
" गूँजते थे गिरि, विपिन, नद, था वह ऐसा काल,
नागकुल के दर्प के बजते पटह और झाल;
नृत्य कैसा झूमता, नभ पर टिकाए पाँव,
पी कहाँ, बस पी कहाँ ही; था कहाँ यह काँव।
" फिर अचानक एक दिन टूटा प्रलय का वेग,
ज्वार सागर के यहाँ पहुँचे बढ़ाए डेग;
गिर गये प्रासाद पत्थर के, गिरे सब कोट,
बिछ गया जंगल धरा पर खाके उनकी चोट।
" जलप्रलय के बीच जीवन सो रहा चुपचाप,
जो कहीं पहचान मिलती है, उसी की छाप;
जो बचे, खांडव विपिन में ले लिया था वास,
और फिर उस विजन भू पर गा उठा उल्लास।
" नागकुल का खिल उठा एकदम नया संसार,
डोलता था मेघ बन कर उस विपिन में प्यार;
शीत में वैशाख हँसता, जेठ में फिर शीत,
ग्रीष्म की वर्षा से कैसी थी अनोखी प्रीत।
" और एक दिन जल उठा वह वन, बुझी न आग,
अग्नि के पुतले बने-से जल गये सब नाग;
जल गये कि राज्य पांडव का खड़ा हो भव्य,
सब तरह से दिख सके जो पूर्ण, अद्भुत, नव्य।
" सोच लो, जिस राज्य के राजा की ऐसी सोच,
निज प्रजा के भाग्य की मणि तीर से ले नोच;
किस तरह का राज्य होगा, किस तरह का भूप,
रेत पर जलते कुसुम पर हो बरसती धूप।
" बुझ गई है आग, लेकिन क्या बुझी है आग?
जल गये हों नाग, पर फुँफकारते हैं नाग।
यह नहीं सागर उबलता, जो उठा फिर शांत,
कुछ क्षणों के वास्ते पागल बना उद्भ्रांत।
" रूई या भूसे के घर में यह सुलगती आग,
क्यों मुझे लगता कि मैं ज्वालामुखी का राग।
तब कहाँ कुछ शांत होता, न धरा, न व्योम,
सोख जाती अग्नि क्षण में संग्रहित सब सोम। "
है वृषाली भी व्यथित कुछ मान कर निज दोष,
हो रहा है अपने पूछे प्रश्न पर ही रोष।
सब छिपा कर कर्ण मन को खींच अपनी ओर,
शांत करने लग गई वह अपशकुन का शोरµ
" शांत मेरे नाथ, सब कुछ हो चला जब शांत,
मौन के स्वर में अभी क्या कह गया कुछ प्रांत।
क्या कहाँ की बात लेकर उड़ चले यूं व्यर्थ,
जो विगत बन रह गई है, शेष क्या कुछ अर्थ!
" यह चका, यह चक्र नदियों का, अनोखा स्वर्ग,
रच रहा है अंगभू पर जो मधुरतम सर्ग!
" नाथ, वह है कौन पंछी? मुग्ध करता शाल,
पत्तियों के बीच गति यूं, कामिनी की चाल!
" आज तक देखा नहीं था, सच कहूँ मैं, नाथ,
ज्यों तमस में छुप रहा हो स्वर्णपंखी प्रात।
माँ के आँचल से हुलकता, शिशु कोई चुपचाप,
हर रहा है इस विजन का शोक, सब संताप। "
कर्ण ने देखा वृषाली का विमल नव हर्ष,
जिस धनुष पर हाथ थे, उनका हुआ अपकर्ष।
दृष्टि द्वय में प्रश्न का भी, प्रेम का भी दान,
जा टिका पल्लव-विवर पर एक क्षण में ध्यानµ
" यह तो हारिल है प्रिये, जो दिख गया तो धन्य,
इससे सुन्दर या लजीला दूसरा क्या अन्य?
प्रेमी वन का, जंगलों का मानता है पाश,
चार रंगों को समेटे, दृष्टि में आकाश।
" यह नहीं नीचे उतरता, अन्न की न चाह,
यह फलाहारी है पंछी, अलग इसकी राह।
जो कहो तो पकड़ लूँ मैं, ले चलूँ निज संग,
स्वर बिखेरेगा सुरीला और मोहक रंग।
" बीतने को अब चला है एक पूरा वर्ष,
रूप, रस, स्वर, गंध का देखा किया उत्कर्ष।
याद भी आई नहीं चंपा की कुछ भी लेश,
दृष्टि के सम्मुख रही तुम और पीछे देश। "
सुन सभी कुछ कर्ण की, बोली वृषाली, " हाय,
छुट रहा है लोक यह, लेकिन बहुत निरुपाय।
अब दिवस का अंत भी तो आ गया है, कांत,
जो रजत-सा दिख रहा था; हेम-सा है प्रांत।
" आज ही तो लौटना भी, छोड़ कर यह लोक,
इस हृदय को घेरता है, क्या कहूँ, क्या शोक!
ज्ञात कुछ भी कब रहा रहते तुम्हारे साथ,
अब यहाँ रुकना उचित होगा नहीं कुछ, नाथ।
" क्या बड़ी दी सोचती होंगी, न सोचा हाय,
निज सुखोें के सामने मन किस तरह निरुपाय।
छोड़ दो हारिल यहीं, हम क्यों उजाड़े गेह,
फूल, पत्तों और फल से पंछियों का नेह।
" चाह बस लेकर चलें कि यह हमारा प्रांत,
जगमगाए गगन-दीपों से, रहे न ध्वांत!
गिरि-वनों में गूँज जाए नागों का फिर हर्ष।
हाँ प्रिये अब लौट जाएँ, बीतता है वर्ष!
" राजकुल के वास्ते भी हैं रखे कर्त्तव्य
नाथ से ही जब बँधा हो अंग का भवितव्य;
भार दीदी पर धरे सब यूँ बने निर्भार
राजसत्ता-भाग्य का तो यह नहीं उपचार।
" क्या हुआ जो दीदी ऐसी बुद्धिमति भी, धीर,
नाथ के बिन राज भी तो पाँवों में जंजीर।
देखती होगी महल से राह को, ले आस,
जानती हूँ मैं शिशिर की यह अनोखी प्यास।
" कब रहा यह ज्ञात कि औरों का होता हर्ष,
नाथ, अब तो लौट जाएँ, बीतता है वर्ष;
इस विछोह का जानती हूँ दुख बड़ा दुर्धर्ष,
पर अभी तो लौट जाएँ, बीतता है वर्ष। "
कर्ण ने देखा वृषाली को हृदय भर नेह,
हो गयी मधुगंध-सी थी एक क्षण में देह;
रक्त फेनिल की जगह है धवल अमृत-धार,
खिल रहे हैं दीठ में जूही, वकुल, कचनार।
मौन का फिर छा रहा रसकोष-सा संसार,
फूल-सा ही रह गया है घट के गिरि का भार।
बढ़ चले दोनों, जहाँ है रथ, उसी की ओर,
और क्षण में गिरि-वनों में कलरवों का शोर।
स्यात सबको लग गई है, इस खबर की गंध,
फूल से बाहर निकल कर बिछ रहे मकरन्द;
दौड़ती चंचल हवाएँ हो रही हैं शांत,
साँझ की किरणें लिए सर पर चली है ध्वांत।
और अंगुल भर उठा रथ, फिर ज़रा कुछ और,
नाद रथ का जो उठा, गूंजे विपिन, गिरि, सौर;
फिर दिशाओं में भटकता ही रहा वह नाद,
शांत फिर ऐसा हुआ, ज्यों घेर ले अवसाद।
मिट रहे दिक्काल गोचर उस तमस में घोर,
शब्द केवल गूँजते हैं मौन के सब ओर;
पर उमड़ता कर्ण के मन में ज्यों पारावार,
भर रहा है चेतना में मौन हाहाकारµ
" क्यांे उठा था धूमध्वज वह चंद्रमा को घेर?
किस तरह बरसा रहा था आग कितनी देर!
चैत भी बीता नहीं है, पक्ष भर की बात,
नभ-सरित्पति पर उबलता अग्नि का संघात।
" थी वृषाली नींद में तो कुछ लगी न टेर,
घेरता उसको वृथा ही अपशकुन का फेर।
हिल रहा हो गिरि-शिखर जब, भूमि कैसे शांत?
नाद घर्घर या हृदय का शोर ही सीमांत? "
लालिमा लेटी हुई जो सो गई तम ओढ़,
कर्ण-मन को घेर कर निशि भी हुई है प्रौढ़;
एक ही गति से बँधा है कर्ण-मन, रथ-चक्र
हाँकता ही जा रहा है भाग्य-गिरिपथ वक्र।