भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गिरे तो गिरते गए / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
गिरे तो
गिरते गए
गिरते-गिरते
आचार से
विचार से गिरते गए
न हुए अपने
न और के,
वनमानुष हुए कुठौर के।
रचनाकाल: ०९-०२-१९८०