गिरे हुए फंदे / सुधा अरोड़ा
अलस्सुबह
अकेली औरत के कमरे में
कबूतरों और चिड़ियों
की आवाजें इधर उधर
उड़ रही हैं
आसमान से झरने लगी है रोशनी
आँख है कि खुल तो गई है
पर न खुली सी
कुछ भी देख नहीं पा रही
छत की सीलिंग पर
घूम रहा है पंखा
खुली आँखें ताक रही हैं सीलिंग
पर पंखा नहीं दिखता
उस अकेली औरत को
पंखे की उस घुमौरी की जगह
अटक कर बैठ गई हैं कुछ यादें!
पिछले सोलह सालों से
एक रूटीन हो गया है
यह दृश्य!
बेवजह लेटे ताका करती है
उन यादों को लपेट लपेट कर
उनके गोले बुनती है!
धागे बार बार उलझ जाते हैं
ओर छोर पकड़ में नहीं आता!
बार बार उठती है
पानी के घूँट हलक से
नीचे उतारती है!
सलाइयों में फंदे डालती है
और एक एक घर
करीने से बुनती है!
धागों के ताने बाने गूँथकर
बुना हुआ स्वेटर
अपने सामने फैलाती है!
देखती है भीगी आँखों से
आह! कुछ फंदे तो बीच रस्ते
गिर गए सलाइयों से
फिर उधेड़ डालती है!
सारे धागे उसके इर्द गिर्द
फैल जाते हैं!
चिड़ियों और कबूतरों की
आवाजों के बीच फड़फड़ाते हैं |
कल फिर से गोला बनाएगी
फिर बुनेगी
फिर उधेड़ेगी
नए सिरे से!
अकेली औरत!