गिलहरी / गुलज़ार हुसैन
मैं उस गिलहरी को बहुत देर तक देखते रहना चाहता था
जो एनसीपीए से सटे गुलमोहर की डाल पर पसरी शाम की धूप सोख रही थी
वह मरीन ड्राइव से आती समुद्री हवा में अपने लहराते रोयें पर इतरा रही थी
वह मुझसे बेखबर
नीले आकाश को घूर रही थी,
लेकिन वह चौंकती थी रह रह कर
जब तेज आवाज में कोई बस गुजरती
या कोई पुलिस वाला डंडा पटकते वहीं ठहर जाता था
मुंबई की चमकती पथरीली सड़कों और इमारतों के बीच
उसका इन पेड़ों के सिवाय कौन था?
यह मुजफ्फरपुर का कोई गांव नहीं था
जो वह इस पेड़ से उतरकर अनार के झुरमुटों में गुम हो जाती
जिस पल ठंडी हवा का तेज झोंका आया
ठीक उसी पल
वह ऊपर की डाल पर दौड़ गई
और उसी क्षण तीन सपने टूटे
पहला, मैं उसे बहुत देर तक नहीं देख पाया
दूसरा, मैं उसकी तस्वीर नहीं ले पाया
और तीसरा मैं उसे शायद दोबारा नहीं देख पाउंगा
हां, जिस समय वह ऊपर झुरमुटों में जा रही थी
मैंने उसके पेट पर ताजा घाव देखा
वह जहां पहले बैठी थी, वहां डाल पर खून जमा हुआ था
लाल गाढ़ा खून
वह एक घायल गिलहरी थी