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गिल्ली-डण्डा / कन्हैयालाल मत्त
Kavita Kosh से
लकड़ी का मोटा-सा डण्डा,
छोटी-सी गिल्ली बन जाती।
गुच्ची पर डण्डे को रखकर
गिल्ली दूर उड़ाई जाती।
डण्डे की प्रत्येक चोट पर
उड़ी-उड़ी फिरती है गिल्ली।
कभी पहुँचती है कलकत्ते,
कभी पहुँच जाती है दिल्ली।
आसमान में दिखती जैसे —
तितली भौंरे छैल-छबीले।
इसे लपकना सरल नहीं है,
रखती दोनों सिरे नुकीले।
मगर विरोधी दल के बच्चे,
साहस का परिचय देते हैं।
सही दिशा में उछल-कूदकर,
गिल्ली अधर लपक लेते हैं।
अपना-अपना दाँव खेलते,
एक-एक कर सभी खिलाड़ी।
अन्य दौड़ते घात लगाते,
कभी अगाड़ी, कभी पिछाड़ी।
सबसे श्रेष्ठ खिलाड़ी वह है,
जो औरों को ख़ूब छकाए।
उसी टीम को ’ट्राफ़ी’ मिलती,
जो भी ज़्यादा अंक बनाए !